31 अग॰ 2016

भारत के इस तंत्र मे तो "लोक" का दम घुटता है !

अमर उजाला 30 अगस्त 2016  मे प्रकाशित 

भारतीय लोकतंत्र और चुनाव प्रणाली इस देश के हक़ में है या इस देश के भू-भाग के और इस देश के आम नागरिकों के हक़ में,यह सवाल आज  शुरू हो चुकी नई नई राजनीतिक परमपराओं की वजह से बहस का विषय है। वर्तमान में सभी राजनीतिक दल ठीक उसी तरह से जनप्रतिनिधित्व कानून के रोम छिद्रों के भीतर माइक्रोस्कोप के जरिये अपने हित खोजने में लगे हैं और काफी हद तक उन्होंने खोज भी लिए हैं। 
पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने चुनाव आचार संहिता का डंका और डंडा बजा या तब से हमारे नीति नियामकों ने ऐसे बहाने तलाश लिए हैं, जिनके जरिये वह कानून की अवहेलना से तब तक बचे रह सकते हैं, जब तक इसके खिलाफ माहौल नहीं बनता।  और इस तरह पिछले दो चुनावों से इस देश में राजनीतिक दलों द्वारा नए भ्रष्टाचार को जन्म दे दिया गया है और मजे की बात ये है इस मुद्दे पर सब एक हैं।  ठीक उसी तरह जैसे जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तों पर सबकी बोलती और बुद्धि बंद हो जाती है ,ऐसे सिर्फ जनता को ही अपने लिए लोकतंत्र का साफ़ सुथरा रूप बरकार रखने के लिए आगे आना होगा।  
स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं के निर्माण और उनकी रक्षा के लिए ही चुनाव आयोग का गठन किया गया है । और यही आयोग का दायित्व है । कोई भी चुनाव देश मे भ्रष्टाचार का आधार हैं । देश मे काला धन बाहर निकलता है ,महंगाई बढ़ती है और हिंसा भी होती है । सरकार प्रशासन का भी समय ऊर्जा और धन की बरबादी होती है । सिर्फ इस वजह से कि चुनाव मे चुनाव प्रचार का समय दिया जाता है ,यह एक बहुत पुराना नियम है । इस देश मे रोज चुनाव ही होते रहते हैं ,भले ही मतदान न हो, इसलिए कि राजनीतिक दल और निर्वाचित सरकारें सब एक ही काम पर लगे रहते हैं । अगला चुनाव ऐसे मे किसी भी राज्य ,और देश के आम चुनावों के अलावा स्थानीय निकाय चुनावों मे चुनाव प्रचार के लिए दिये जाने वाले समय और चुनाव खर्च के प्रावधान को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए । 
ज के दौर मे भारत की सभी सरकारें लगभग 20 सालों से देश मे चुनाव सुधारों की बात करते हुये सत्ता से बेदखल हो चुकी हैं ,मगर देश की चुनाव प्रणाली मे अभी तक कोई ऐसा सुधार नहीं सामने आया ,जिससे वाकई लोकतन्त्र की स्वच्छता और शुचिता के साथ मतदान की पवित्रता भी बनी रहे । लोकसभा या हो विधान सभा चुनाव, शायद ही देश का कोई हिस्सा ऐसा बचता होगा जहां मतदान केन्द्रों पर कब्जे  की कोशिशें न की जाती हो। इसके अलावा पूरे के पूरे गाँव के वोट ही किसी एक प्रत्याशी के पक्ष मे पड़ जाना उसकी लोकप्रियता का पैमाना माना जाता है ,जबकि यह लोकप्रियता भय पर आधारित होने मे कोई शक नहीं होता ।
देश मे चुनाव सुधारों के लिए टी एन शेषन नाम के एक मुख्य चुनाव आयुक्त बहुत जाने और पहचाने गए ,उन्होने जो भी किया उसे आज भी इसलिए याद किया जाता क्योंकि इससे पहले के सभी चुनाव आयुक्त सरकार के खिलाफ नहीं जाते थे ,क्योंकि चुनाव परिणाम भी कांग्रेस के खिलाफ जाएंगे, ऐसा नहीं माना जाता था । सवाल यह नहीं है कि श्री शेषन ने क्या किया और क्या नहीं किया ,आखिर चुनाव आयोग की नीति  नियामक संस्था भी भारतीय संसद ही है और उससे पारित कानून और नियमों को ही चुनाव आयोग को लागू करवाना होता है । बस सिर्फ इतना फर्क होता है -चुनाव के समय चुनाव आयोग के काम मे सरकारी दखल जाहिर तौर पर नहीं दिखाई देता । यह बात इसलिए गलत नहीं है क्योंकि सत्तारूढ़ दल चुनाव आचार संहिता से लेश मात्र भी सतर्क या भयभीत नहीं दिखाई देता ।
चुनाव सुधार के नाम पर अब तक देश मे जो भी किया गया वह कितना प्रभावी रहा ,यह जानने की कोशिशें भी चुनाव के बास आने वाली सरकारें ठीक से नहीं करती ।  चुनाव के बाद ऐसा लगता है जैसे चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है जो चुनाव के बाद स्वतः भंग सी हो जाती है या अस्तित्वहीन हो जाती है ,जबकि लोकतन्त्र मे यही एक मात्र ऐसी संस्था है, जो सर्वाधिक गतिमान और सशक्त दिखाई देनी चाहिए । विकास के नाम अपर भारत आज तक दुनिया भर से नयी नयी तकनीक और साधन,सहायता लेता रहा है ,मगर हमने आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी देश से उसके उन क़ानूनों को नहीं लिया जिनके जरिये उन्होने अपने देश मे चुनाव सुधार के साथ आम जन के हित मे उपयोगी और सुविधाजनक कदम उठाए हैं ,जिनके अभाव मे उनके देश की जनता असुविधा महसूस करती रही है और उन्होने उसे बदला । दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत मे आने वाली हर सरकार ,चुनाव के पहले कितनी ही भ्रष्टाचार की परतें खोलने की बातें करे मगर चुनाव के बाद वह खुद आम जनता को,उसी जनता को जिसने उनसे वोट लेकर सरकार बनाई है ,ऐसे क़ानूनों से बांधने लगती है जिससे आम मतदाता का दम घटता हुआ नजर आता है ,मगर पाँच साल की लाचारी उसे सब्र के इम्तेहान मे ले जाती है ।
राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा पत्रों और वादों के साथ चुनाव प्रचार के दौरान उस समय सतारूढ़ दलों की नीतियों पर उठाए जाने सवाल और उनके भ्रष्टाचार के मुद्दों के विषय ऐसे हैं ,जिन पर नयी सरकार को पूरी तरह से अमल मे लाना चाहिए । इसके अभाव मे उस सरकार की जवाबदेही तय करने का काम भी चुनाव आयोग उतने ही अधिकार से करे ,जितने अधिकार से निर्द्वंद होकर वह चुनाव सम्पन्न कराता है,मगर ऐसा आज तक हुआ नहीं और कभी होगा ,इस पर राजनीतिक दलों मे कहीं  मतभेद भी नहीं है । आखिर क्यों ? इस सवाल का जवाब भारत के राजनीतिक दल,सरकारें और न्यायपालिका और चुनाव आयोग कभी खोजने की कोशिश भी नहीं करते । अधिकतम मतदान की अपील के लिए करोड़ों अरबों रुपये खर्च करके भी मतदान के प्रतिशत मे मात्र 10-15 प्रतिशत की औसत वृद्धि ही दर्ज की जा सकी है -इसमें मतदान केन्द्रों पर कब्जे और मतदान की पवित्रता भंग किए जाने के गैरकानूनी तरीके भी शामिल हैं ,जो भविष्य की सरकारे कानून बनाने की ताकत प्राप्त करने के लिए अमल मे लाती हैं ।
हाँ यह मिसाल काफी होगी कि नरेंद्र मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने चुनाव के दौरान (जो वह हार गए ) खुद आयकर सीमा पाँच लाख किए जाने की घोषणा ,पूरे चुनाव अभियान के दौरान करते रहे और चुनाव के बाद देश के वित्त मंत्री के तौर शपथ लेने के बाद उनका सबसे पहला काम देश का अगला बजट बनाने का ही था । अपने पहले ही  बजट मे ही उन्होने पिछली मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को बेहद खराब बताने मे कभी संकोच नहीं किया और उनकी पार्टी ने भी मनमोहन सिंह की सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताया और फिर अपने पहले ही बजट मे अरुण जेटली  ने आम आदमी की सबसे बड़ी उम्मीद आयकर सीमा मे बढ़ोत्तरी को छुआ तक नहीं, जिसे मनमोहन सिंह सरकार अपने दस साल के कार्यकाल मे कई बार ,थोड़ा थोड़ा ही सही बढ़ा चुकी थी ।
वाल यह है कि सरकार बनाने जा रहे लोग क्या ऐसे ही बिना समुचित जानकारी के नारों और भाषणों के सहारे सत्ता हथियाने का अभियान चालते हैं या फिर देश को एक उत्तर दायित्व पूर्ण सरकार देना चाहते हैं -इस सवाल का जवाब चुनाव आयोग को लेने के लिए सक्षम बनाना होगा । जब तक हमारे देश के राजनीतिक दलों की जनता के प्रति जवाबदेही कानूनी तौर पर आती नहीं होग जाती ,तब तक भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र का नाम देना महज एक चुनावी वादे और नारे जैसा खोखला है। इसके बाद मतदान और उसकी प्रक्रिया ही सबसे बड़ा मुद्दा है जिसकी बुनियाद पर ही हमारा लोकतन्त्र खड़ा है। इसके लिए हम आज भी उस सोच मे जी रहे हैं जब भारत को  आजाद कराया गया था और जैसे तैसे देश मे आजाद भारत की एक सरकार का गठन करना था। उस समय देश मे सिर्फ एक ही पार्टी थी और वह कांग्रेस । उस कांग्रेस ने अपने हिसाब से चुनाव प्रणाली और मतदान की प्रक्रिया तय कर दी ,वही प्रक्रिया आज विकास के मामले मे दुनिया के मुक़ाबले को तैयार इस देश को हर पाँच साल मे एक नए दल को सरकार बनाने का अवसर देती है जो पिछली सरकार के धुर खिलाफ होता है ,मगर चुनाव प्रणाली को बदलने के बारे कोई नहीं सोचता ।क्योंकि चुनाव प्रचार के लिए मुद्दे गढ़ने वाले राजनीतिक दल चुनाव की लाचार प्रणाली को ही अपने लिए संजीवनी शक्ति मानते हैं ।
त्तर प्रदेश और उत्तराखंड पंजाब के बाद मणिपुर आदि राज्यों की विधान सभाओं के लिए अगले वर्ष के शुरू में ही होने वाले चुनावों के लिए इस समय सभी दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।  मगर अभी चुनाव में समय है।  कितना हास्यास्पद है कि चुनाव की पवित्रता के नाम पर सभी राजनीतिक दाल किस तरह से कानून  इस्तेमाल करते हए निर्द्वंदता के साथ अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर रहे हैं ,बाकायदा खर्च की सीमा के बंधन से मुक्त होकर लगभग पूरा चुनाव प्रचार अब से कई महीने पहले ही शुरू कर चुके हैं ,जिस करोड़ों रूपया खर्च किया जा रहा है।
  1. यही नहीं राजनीतिक दलों में टिकटों की खुली बिक्री किये जाने की बात अब किसी से छिपी नहीं है।  इसके बावजूद रोज उम्मीदवार तय करके ,बदले भी जा  रहे हैं ,जाहिर यह इस खुले लोकतांत्रिक भ्र्ष्टाचार को रोकने में यह देश पूरी तरह असहाय और मूकदर्शक है।  किसी को न तो इसमें कोई खामी नजर आ रही है और न ही कोई कानून इस पर लागू होता है।  ऐसे में मौजूद परिवेश में जरूरी है कि -कहीं भी किसी प्रदेश सत्तारूढ़ दल के द्वारा यदि चुनावी तैयारी और उम्मीदवारों का चयन /घोषणा किया जाना शुरू कर दिया जाये तो वहाँ तुरंत चुनाव आचार संहिता अस्तित्व में आ जानी चाहिए।ऐसे में फिलहाल उत्तर प्रदेश और उत्तरखंड मे तत्काल चुनाव आचार संहिता लागू की जाए । 
  2. सभी दल पूरी तरह से चुनाव की खुले आम तैयारी कर रहे हैं जबकि चुनाव मे अभी समय है । ऐसे मे राजनीतिक दल अपनी तैयारी करें उसमें कोई ऐतराज नहीं है मगर उम्मीदवारों की घोषणा न करें । इससे चुनावी रंजिश पैदा हो रही है जो मतदान के समय हिंसक रूप मे सामने आती है । 
  3. कोई भी राजनीतिक दल यदि अपने किसी उम्मीदवार की घोषणा करता है तो उसका निर्वाचन अधिकार पत्र नामांकन के समय जारी करने के बजाए उम्मीदवारी की घोषणा के साथ ही तत्काल निर्वाचन आयोग को उपलब्ध कराया जाये । 
  4. राजनीतिक दलों पर यह पाबंदी होनी चाहिए कि एक बार अपने उम्मीदवार कि घोषणा के बाद उसे बदलेंगे नहीं ।और यदि बदलते हैं तो उन पर जुर्माना लगना चाहिए ,क्योंकि आज के दौर मे राजनीतिक दल अपने टिकिट बेच रहे हैं ,ऐसे मे राजनीतिक दलों पर यह पाबंदी होनी चाहिए कि वे चुनाव आयोग के समक्ष इस बात का शपथ पत्र दें कि किसी भी उम्मीदवार को अपना प्रत्याशी बनाने के लिए उन्होने किसी प्रकार का धन नहीं लिया है । और न ही वह चुनाव के लिए किसी प्रत्याशी धन देंगे और चन्दा भी नहीं लिया जाएगा । 
  5. यदि कभी भी किसी भी उम्मीदवार का चयन करने के लिए उससे धन या अन्य किसी प्रकार का लाभ लिया गया है तो उस दल का पंजीकरण निरस्त करके उसे चुनाव मे प्रतिबंधित कर दिया जाएगा । 
  6. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड मे बड़ी संख्या मे राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों ने अपने होर्डिंग बैनर प्रचार सामिग्री लगा दी है । जिला निर्वाचन अधिकारियों से जांच कराकर रिपोर्ट ले ली जाये और ऐसी सभी प्रचार सामिगरी को उस क्षेत्र के प्रयाशी के चुनाव खर्च मे जोड़ दिया जाये ,भले ही पार्टी उस क्षेत्र से अपना प्रत्याशी ऐन चुनाव के मौके पर बदल दे । 
  7. चुनाव कार्यक्रम की निर्धारित व्यवस्था मे अब बदलाव किया जाये प्रचार की अवधि ,चुनाव प्रचार चुनाव मे होने वाले खर्च समाप्त कर देना चाहिए ! 
  8. इसलिए कि यह तब जरूरी था,जब संचार और यातायात के साधन नहीं थे , मीडिया सोशल मीडिया ,इन्टरनेट ,टेलीफोन ,मोबाइल स्कूटर मोटसाइकिलें नहीं थे तब यह प्रचार का समय ठीक था ,अब तो सब अपने अपने हिसाब से इस कदर प्रचार मे लगे हैं कि मतदान से पहले अलग से चुनाव प्रचार सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार और लोकतन्त्र के चीरहरण के अलावा कुछ नहीं है । 
  9.  #ElectionCommissionofIndia को इस बारे मे सोचना चाहिए ।देश मे चुनाव के लिए चुनाव प्रचार ,प्रचार के लिए दिया जाना वाला समय और खर्च समाप्त कर देनी चाहिए । खर्च की अनुमति ही न हो । चुनाव की घोषणा के साथ ही एक हफ्ते मे मतदान होना चाहिए ।
  10. वर्तमान समय मे इलेक्ट्रानिक और इन्टरनेट का युग है ,ऐसे मे चुनाव आयोग को न केवल अपनी वेब साइट पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य सोशल साइट्स के जरिये भी आधार नमबर से मतदाता  सूची लिंक होने कारण मतदान की वयवस्था करनी चाहिए । 
  11. इसके अलावा सबसे अंत मे जो सबसे महत्वपूर्ण सुझाव है वह यह कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र मे मतदान के लिए न्यूनतम तीन दिन समय दिया जाये ,सचल मतदान केन्द्रों की भी व्यवस्था की जाये ,जिससे सभी मतदाता अपने मत का अपने घर पर ही प्रयोग कर सकें ।
-आशीष अग्रवाल 

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