28 मार्च 2015

मेरे जीवन की "अटल स्मृतियाँ,संतोष गंगवार के साथ !


बांये से-भाजपा नेता सतीश रोहतगी,मैं ,पूव प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ,पूर्व सांसद राजवीर सिंह, व पूर्व मंत्री बहोरनलाल मौर्य 
ज पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी जी वाजपेयी को भारत रत्न दिये जाने की घोषणा से देश के इस सबसे बड़े पुरस्कार को भी सम्मान मिला है। एक सामान्य  नागरिक और पेशे से पत्रकार होने के नाते मुझे भी इस बात की ख़ुशी है कि  इतने महान व्यक्तित्व और अब "भारतरत्न  सम्मान" से विभूषित भारत  माँ के इस लाल के साथ मुझे भी कुछ क्षण बिताने का और सार्वजानिक समारोह में मंच तक पर रहने का मुझे भी अवसर मिला,तीन बार।
क बार तब मेरे घनिष्ठ मित्र और अग्रज , मौजूदा केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार की शुभेच्छाओं से। तब भी मैं अमरउजाला में था और मुझ पर प्रादेशिक डेस्क की जिम्मेदारी थी। दूसरी  बार तब जब मैं अपने विवाह के बाद हिमाचल की यात्रा पर गया और वहाँ मेरे परिचित तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्री राधा रमण शास्त्री जी ने मुझे राज्य अतिथि का दर्जा दिलवा दिया और  मुझे कुल्लू ,मनाली के सर्किट हाउस में रहने का अवसर मिला। मनाली के सर्किट हाउस में मेरे बगल के कमरे में श्री अटल जी अपने प्रवास पर थे। अगली सुबह मैंने देखा सर्किट हाउस के बरामदे में हरे नीले चेक का तहमद और बनियान पहने अटल जी अखबार पढ़ रहे थे। नमस्कार/प्रणाम के बाद उस दिन उन्होंने सुबह का नाश्ता मुझे अपने साथ करने का अवसर दिया।
वैसे तो अखबार के रिपोर्टर के तौर पर कई  बार अटल जी के साथ होने का अवसर मिला। मैंने पत्रकारिता के जीवन में पहली महत्वपूर्ण खबर भी अटल जी की वह खबर लिखी ,जब वह पौड़ी में भाजपा के गठन के बाद पहली बार भाजपा की विचारधारा पर बोले थे -उस खबर का शीर्षक था "भाजपा गांधीवादी-समाजवाद पर ही चलेगी"।  नवम्बर १९८५ में। अमरउजाला की नौकरी शुरू किये मुझे कुछ ही दिन हुए थे। तब संपादक स्व. अतुल महेश्वारी जी ने मुझे बाहर से आने वाली ख़बरों को फिर से लिखने और अच्छी प्रस्तुति का  काम दिया था। उसी में अटल जी की वह खबर भी थी, जो भाजपा के गठन के बाद पहली बार आई थी।योगेश धस्माना ने पौड़ी से अटल जी का वह इंटरव्यू भेजा था। अमरउजाला के बरेली और आगरा अंक में तब छपी यह खबर बहुत चर्चित हुयी थी ,क्योंकि जनसंघ से अलग होने बाद भाजपा का क्या स्वरुप होगा, यह एक बड़ा सवाल था। बड़ी खबर में से यह मुद्दे की बात निकाल कर उभार देने के लिए मुझे तब अतुल जी ने शाबासी भी दी। तब मैंने अटल जी को जाना।
टल जी से मिलने  का पहला मौक़ा तब मिला जब लोकसभा में पहली बार भाजपा के सांसदों की संख्या दो से अचानक 85 हो गयी और चार राज्यों में भाजपा की सरकार भी बन गयी। तब भाजपा ने अपने सांसदों और विधायकों का एक प्रशिक्षण शिविर भोपाल में आयोजित किया। इत्तेफाक से मैं दिल्ली में था और संतोष जी तब पहली बार संसद बने थे ,उन्होंने मुझसे भोपाल चलने को कहा, मैं तैयार हो गया। घूमने और राजनीति को समझने शौक था। मैंने अवसर को जाने नहीं दिया। दिल्ली से चली भाजपा की स्पेशल ट्रेन में कुछ समय अटल जी से बात करने का भी मिला। और भीपाल पहुंचकर मैंने वह खबर अमरउजाला बरेली को फैक्स भी कर दी।
खैर ! अटल जी से मिलने का दूसरा  मौक़ा था संतोष जी के सांसद के रूप में पहले कार्यकाल के दौरान किये गए विकास कार्यों का लेखाजोखा प्रस्तुत करती उस पुस्तक  के विमोचन का, जो मेरे द्वारा संपादित और संग्रहित किये गाये आकंड़ों पर आधारित थी। इस पुस्तक के आकड़ों को जुटाने में स्वयं श्री संतोष जी के अलावा उनके सहयोगी सतीश रोहतगी ,और स्व. पंडित गोवर्धन नाथ चतुर्वेदी जी का बड़ा सहयोग था। इस पुस्तक का विमोचन बरेली में 1993 के लोकसभा चुनाव के दौरान तब हुआ जब बरेली में नगर निगम के सामने भारतीय जनता पार्टी की चुनावी सभा को सम्बोधित करने के लिए श्री अटल जी आने वाले थे।
ह पहले से तय था कि जनसभा में श्री अटल जी इस पुस्तक का विमोचन करेंगे। मगर इस बात से मैं और भाजपा के तमाम नेता अनभिज्ञ थे । और मेरी ऐसा कोई मंशा भी नहीं था कि पुस्तक के विमोचन में मेरी उपस्थिति भी हो। संतोष जी की एक ख़ास बात है वह जब किसी के सहयोग या काम से प्रसन्न या नाराज़ होते हैं तो उसका अहसास  सिर्फ उन्हीं को रहता है।तब के अनगिनत शुभचिंतक इस बात को जानते हैं। मुझे नहीं पता था कि इस पुस्तक का रूप रंग संयोजन  संतोष जी को पसंद आया है। पुस्तक की सबसे ख़ास बात यह थी कि यह खुद संतोष जी के द्वारा ही प्रस्तुत की जानी थी ,तो इसका संपादक कोई और कैसे हो सकता था ? उन्होंने मुझसे कहा भी आप इस पुस्तक के संपादक के रूप में अपना नाम लिखें ,मगर मुझे यह बात जची नहीं। मैंने उनसे पूछा -पुस्तक आपके संसदीय क्षेत्र और कार्यकाल के विकास कार्यों का ब्यौरा भर है ,तो यह आपकी ही तरफ से होनी चाहिए। वह सहमत हुए।मैंने संपादक के तौर पर अपना नाम नहीं दिया।
इस दौरान मैंने  काफी सोच विचार करके उनसे एक आग्रह किया। सोच विचार इसलिए करना पड़ा क्योंकि मैं देख रहा था सर्दी के मौसम में सुबह तड़के से लेकर रात देर तक वह अपने चुनाव प्रचार में रहते हैं ,ऐसी में उनसे इस पुस्तक का सम्पादकीय लिखने का आग्रह करना उचित होगा ! फिर भी एक दिन मैंने संकोच तोड़कर उनसे कह ही दिया की-इस पुस्तक का सम्पादकीय आपको ही लिखना है। वह राजी हो गए -एक चुप्पी के साथ !
मुझे आश्चर्य हुआ कि अगले दिन उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि -मैंने आपका काम कर दिया है। मैं कुछ भूल चुका था ,कि मैंने कौन सा काम कहा है !और मुझे उम्मीद भी नहीं थी कि इस कदर चुनावी व्यस्तता में वह इतना समय निकाल कर सम्पादकीय इतनी जल्दी लिख देंगे।  मगर उन्हने यह काम शायद रात में दो ढाई बजे के आसपास तब पूरा किया जब वह चुनावी दौरे से लौटे। संतोष जी की लेखनी का कौशल तब मैंने पहली बार देखा। किसी मंझे हुए पत्रकार और संपादक के  जैसा आलेख था। उन्होंने कहा भी- मैं इसी ठीक कर लूँ ,मगर उसमें कलम चलाने तक की गुंजाइश तक नहीं थी। उस पुस्तक में  वह आज भी संरक्षित है।
खैर बात श्री अटल जी के निकट तक पहुँचने की थी। जो मेरे लिए अकल्पनीय थी। उस समय मोबाइल का युग नहीं था ,और लैंडलाइन फोन का भरोसा नहीं था। जनसभा वाले दिन सुबह सुबह भाई सतीश रोहतगी जी अचनाक मेरे घर आये और बोले संतोष जी ने बुलाया है। मैंने पूछा क्यों -बोले मुझे नहीं पता ! मैं आश्चर्य में था। रोहतगी जी खुद मुझे अपने साथ ले गए। सीधे नगर निगम -जनसभास्थल ,बोले संतोष जी वहीँ हैं। मुझे तब भी नहीं बताया गया कि मुझे क्यों बुलाया है। मैं पसोपेश में था। अखबार की मेरी नौकरी की लिहाज से मेरे लिए यह उचित नहीं था कि बिना आधिकारिक ड्यूटी के मैं किसी कार्यक्रम में रहूँ, जहां मुझे नहीं रहना है।
सुबह के ग्यारह बजे के आसपास श्री अटल जी जनसभा स्थल पर आ गए। सारे नेता गण जिन्हें  मंच पर होना था, पहुँच गए। मैं नीचे खड़ा था। मुझे तब भीं नहीं पता था कि मुझे अटल जी के साथ मंच पर खड़े होने का सौभाग्य मिलने वाला है। शायद संतोष जी ने अपना यह विचार किसी से साझा भी नहीं किया था। कार्यक्रम शुरू होते ही जब संतोष जी मंच की और बढे तो हाथ पकड़  कर मुझे भी अपने साथ ले गए और इतना ही नहीं अपनी पुस्तक के विमोचन के दौरान खुद पीछे खड़े हो गए और मुझे आगे कर दिया। और इस तरह यह पहला मौक़ा था जब मुझे देश की किसी बड़ी हस्ती के साथ सार्वजनिक रूप से खड़े होने का मौक़ा मिला मुझे आश्चर्य था कि संतोष जी ने मंच पर आगे आने का ज़रा भी प्रयास नहीं किया। वर्ना राजनेता आज के देर ऐसा मौक़ा कहाँ छोड़ते हैं !वह भी तब जब उनका खुद का चुनाव है और उन्हें ही खुद को प्रस्तुत करना है।
मैं गदगद था और भयभीत भी !गदगद होने की वजह तो साफ़ है ,मगर भयभीत इसलिए था कि अखबार की नौकरी में इस तरह के कार्यक्रम  में सहभागिता को पत्रकारिता की निष्पक्षता के लिहाज से पसंद नहीं किया जाता था,। खैर जो भी हुआ !वह मेरे लिए एक "अटल स्मृति" बन गया !इस कार्यक्रम की यह तस्वीर तब से लेकर आज तक मेरे ड्राइंगरूम में लगी है।
-आशीष अग्रवाल 

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