4 नव॰ 2020

लोक प्रसारक की अलोकतांत्रिक करतूतें : प्रसार भारती के दुष्चक्र में पिस रहा कैंसरग्रस्त एक पत्रकार!

प्रसार भारती का क्रूर चेहरा ! यह एक और स्टोरी 

कैसर से उबरे वरिष्ठ पत्रकार अभी भी डीडी न्यूज़ की नियुक्ति मे हैं और उनके वापस दिल्ली आने का इंतजार किया रहा है। उनका कहना है वहाँ कि परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि लगभग सभी काम करने वाले एक घुटन में हभारत का लोक प्रसारक किस कदर आलोकतांत्रिक और अपनी मनमानी पर आमादा है, इसका प्र्माण देता हुआ एक मामला सामने आया है। उत्तरप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार आशीष अग्रवाल को प्रसारभारती की ही उच्च स्तरीय समिति ने ही जुलाई 2017 मे नियुक्त किया था। हद तो यह है कि प्रसार भारती जैसा संस्थान केन्द्रीय मंत्रियों और सत्ता के अन्शीर्ष नेताओं की सिफ़ारिश को भी वजन नहीं देता, इसकी वजह यही बताई जाती है कि प्रसार भारती के सीईओ, जो 2014 के चुनाव मे प्रधानमंत्री के सोशल मीडिया संयोजक रहे, उसके इनाम के बदले उन्हें यह पद दिया गया। हालांकि प्रशानिक और पत्रकारिता के क्षेत्र मे उनका कोई अनुभव सामने नहीं आया है। सुना तो यहाँ तक गया है कि स्मृति ईरानी से लेकर मौजूदा मंत्री प्रकाश जावडेकर तक उनसे एक दूरी बनाए रखते हैं। दबी जुबान से उनके बारे में अंदर भी यही कहा जाता है कि वह सरकार समेत केंद्रीय मंत्रियों और प्रसार भारती बोर्ड के सदस्यों तक की नहीं सुनते।

श्री अग्रवाल समेत कई पत्रकारों की नियुक्ति हुयी थी, वह एक अलग कथा है, उसके भीतर जाएँ तो सरकार की कार्यप्रणाली के उस हिस्से का पता चलता है कि कैसे उच्च पदों का निर्धारण बिना किसी औपचारिकता के, बिना किसी अधिकारी की संस्तुति के, एक सादे कागज पर न जाने कौन कर देता है। यही नहीं सभी को नियुक्ति के समय एक वर्ष के अनुबंध का पत्र भेजा गया और जब जॉइन करने गए तो उस अनुबंध को वापस लेकर छह महीना का थमा दिया गया। मगर सबूत तो नहीं मिट सकता न! यह काम भी किसी के मौखिक आदेश से हुआ। शुरू में यह भी कहा गया कि यह सब भाजपा नेतृत्व के कहने पर हुआ, जिसमे प्रधानमंत्री की भी सहमति रही है, मगर ऐसा नहीं था। ऐसा होता तो किसान चैनल में गए एक पत्रकार को छह महीने बाद ही अचानक कार्यमुक्त नहीं कर दिया जाता।

देखा जाये तो यह पूरा प्रकरण गंभीर जांच का विषय है। नियुक्तियाँ, फिर अनुबंध अधिकारियों की अच्छे काम की संस्तुति के बाद भी अचानक समाप्त करना केंद्र सरकार का ही मखौल उड़ाता है। जो पत्रकार उस समय के अभी भी वहां हैं, उनकी आपबीती भी कम दर्दनाक नहीं है।

श्री अग्रवाल को अगस्त 2018 में कैंसर रोग का शिकार होना पड़ा, हालांकि इससे पहले वह अपनी तकलीफ को एक वर्ष तक राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट में दिखाते रहे। वहाँ के प्रमुख डाक्टर एके दीवान उन्हें कैंसर न होने की बात करते रहे। आखिर में बायोप्सी कराने के सलाह में उन्हें मामूली सा कैंसर बता दिया गया। खैर उनका बड़ा आपरेशन हुआ। उन्होंने दिल्ली के बी एल कपूर अस्पताल में अपना आपरेशन कराया। उसके बाद करीब एक माह बाद वह फिर अधिकारियों की अनुमति से आफिस गए। मगर डाक्टरों की एक माह बाद रेडियेशन की सलाह के बाद वह शारीरिक रूप से उस समय इस लायक नहीं रहे कि आफिस जा सकें।

बाद में वह 2019 में अपने घर बरेली आ गए। 2020 में मार्च में लाक डाउन की घोषणा और कोरोना के प्रकोप के चलते जब सभी जगह work from home की घोषणा हुई तो उन्होंने अपने लिए वर्क फ़्रोम होम मांगा। इस बीच बरेली के सांसद और केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री को पत्र लिखकर श्री अग्रवाल का बरेली दूरदर्शन केंद्र या आकाशवाणी मे तबादला करनेकी सिफ़ारिश की, मगर यह पत्र भी प्रसार भारती की भूल भुलैया टाइप बिल्डिंग में खो गया, जिसका कोई जवाब भी सूचना मंत्री और केंद्रीय श्रम मंत्री को नहीं दिया गया।

इस बीच आशीष अग्रवाल प्रसार भारती के तत्कालीन चेयरममैन ए सूर्यप्रकाश और महानिदेशक श्री मयंक अग्रवाल के संपर्क में रहे। दोनों ने ही उनके प्रति सहानुभूति पूर्वक विचार करने का भरोसा दिलाया। पता यह भी चला कि ए सूर्यप्रकाश ने मोदी सरकार के आने के बाद से प्रसार भारती के सीईओ बने शशि शेखर वेंपति से आशीष अग्रवाल के तबादले की अनुशंसा भी की, मगर केन्द्रीय मंत्रियों से लेकर चेयरमैन तक की सभी बाते और पत्र बेअसर हो गए। मानवीयता और इंसानियत तो बहुत दूर की बात है।

अभी भी श्री अग्रवाल अपने लिए वर्क फ़्रोम होम के साथ साथ बरेली तबादले की मांगा कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के pgportal dot gov dot in पर भी अपनी बात रखी, और बरेली तबादले के साथ तब तक डीडी न्यूज़ के लिए घर से काम करने के अनुरोध को स्वीकार करने का अनुरोध किया। मगर नतीजा वही धाक के तीन पात।

एक बार तो प्रसारभारती के एक छोटे से अधिकारी ने इस बारे में दूरदर्शन न्यूज़ से जवाब तलब करके प्रधानमंत्री के पोर्टल पर भेज दिया, मगर बाद में जब श्री अग्रवाल ने बताया कि यह जवाब तो डीडी न्यूज़ का है, और उसमें साफ साफ लिखा है कि प्रसार भारती कि ओर से इस मामले में कोई निर्णय नहीं लिया जा रहा है। इस जवाब पर प्रसार भारती ने अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं कि है। तब दोबारा फिर वही जवाब भेज दिया गया और इस तरह इस मामले में प्रसार भारती ने प्रधानमंत्री को भी अपनी शब्दावली में उलझा दिया और आगे के लिए इस विषय को समाप्त करने की भी घोषणा कर दी।

आशीष अग्रवाल 
आशीष अग्रवाल वर्तमान में कष्ट के दौर में हैं। वह आगे कभी दिल्ली नहीं जा सकेंगे, क्योंकि सर्जरी के बाद वह केवल लिक्विड भोजन के साथ दूध आदि ले सकते हैं और कुछ नहीं। इधर केंद्र सरकार ने भी नए कानून बना कर संविदा पर नियुक्त कर्मचारियों को भी नियमित कर्मचारी के रूप में माने जाने का आदेश और कानून कई साल पहले ही पारित कर दिया है। हाल में पारित श्रम क़ानूनों मे इस विषय को साफ कर दिया गया है।

(श्री अग्रवाल का हाल चाल लेने गए एक पत्रकार से हुई बातचीत पर आधारित )

कैंसर मे जिंदगी उसके बाद डीडी न्यूज़ भी साथ छोडने को तैयार

28 दिस॰ 2019

भारत माता ,वन्देमातरम के बाद और अब "मित्रों " भी गुलज़ार !

मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री #नरेंद्रमोदी की तरह सुप्रसिद्ध फिल्मकार और शायर गुलज़ार साहब की भी आदत में अपना सम्बोधन "मित्रों" से करने की आदत है, मगर आज मुम्बई में अमर  उजाला के शब्द सम्मान  समारोह में  उन्होंने भले ही ही माहौल  को हल्का करने के लिए मित्रों का सम्बोधन बोलने से परहेज किया हो ,मगर यह संकोच ही एक सन्देश तो दे ही गया।
साहित्य और राजनीति में कैसे महज अंदाज़-ए -बयां से  शब्दों का राजनीतिकरण करके खांचों में बाँट के रख दिया जाता है ,इसका एक ताज़ा उदाहरण आज मुम्बई में उस समय मिला जब प्रसिद्ध फ़िल्मकार और शायर गुलज़ार साहब जब सम्मान देने के बाद अपने सम्बोधन को डायस पर आए और कुछ क्षणों के लिए शांत खड़े रहे । माजरा समझ मे नहीं आया या वह कुछ सोच रहे थे ,अगले ही पल उन्होने खुद ही स्पष्ट कर दिया । एक गहरी सांस के साथ उनके कंठ से से निकाला "दोस्तों " !मौक़ा था देश के प्रमुख समाचार पत्र समूह " अमरउजाला " के दूसरे शब्द सम्मान समारोह का ,जिसमें अपनी क्षण भर की चुप्पी और बाद में दोस्तों के उद्बोधन से अपनी बात शुरू करने को लेकर जब उन्होने स्पष्टीकरण दिया ,बस वही से एक नयी बहस या कहें मंथन की शुरुआत हुयी ।
रअसल गुलज़ार साहब डायस पर आते ही कहीं न कहीं नरेंद्र मोदी के अंदाज़े-ए -बयां  से कुछ कुछ प्रभावित जरूर रहे होंगे ,तभी उन्हें एक दम हमेशा अपनी जुबां पर रहने वाला "मित्रों " शब्द कुछ गैर सा कैसे लगने लगा ,मैं इसी बात को लेकर थोड़ा आश्चर्य में पड़ गया।  मित्रों और दोस्तों में भी आमतौर पर फर्क करने की सोच जल्दी किसी बड़े से बड़े आदमी के दिमाग में कैसे आ सकती है ,यह भी कम गंभीर मुद्दा नहीं है। फिर गुलज़ार साहब क्या सोच के ठिठके ,यह तो वही जाने ,और उन्होंने इस पर रौशनी भी नहीं डाली ,मगर जो सफाई या तंज लहजे में उन्होंने बयान किया वह कुछ ऐसा ही इशारा दे गया कि अक्सर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपनी बात मित्रों से ही शुरू करते हैं ,और कहीं उन्होंने भी यदि आज देश के इस बड़े समाचार पत्र  समूह के समारोह में मित्रों को जुबां पर रख लिया तो कहीं उन्हें मोदी की शब्दावली अपनाने वालों में शुमार न कर लिया जाए ,या फिर उन्होंने यहां भी हिंदी और उर्दू दो अलग अलग शख्सियतों में खड़ा करके देखा ,कुछ कहा नहीं जा सकता।
खैर बात जो भी रही हो राजनीति और साहित्य ,दो ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां से देश को दिशा या सोच मिलती है।  राजनेताओं के भाषणों में अपनाई गयीं बातें और शब्द या तो प्रिय बन जाते हैं या परहेज की वजह।  यह कोई पहला मौक़ा नहीं है। नगरों,कस्बों चौराहों के नाम से लेकर कभी गुस्से या आलोचना में इस्तेमाल किये गए शब्द या अपनी अपनी परम्परा के प्रदर्शन के लिए किये जाने भाषण  नारे गायन इत्यादि भी परहेज और अपनाये जाने की जरुरी वजह बन जाते हैं। गुलज़ार साहब ने मित्रों को छोड़कर दोस्तों को बुलाने के अंदाज़ से कोई हल्का फुल्का सन्देश नहीं दिया है। यह अचानक भी नहीं है। एक समय था जब हिन्दुतान कहते कहते लोगों की जुबां पहले इण्डिया और फिर भारत आया। भारत आने के बाद जब भारत माता की जय का नारा बुलंद हुआ तो  इस नारे को सिर्फ एक धारा की तरफ मोड़ दिया गया।
हुतों ने इससे परहेज अभी तक जारी रखा है और कुछ लोग इसे जरूर लगाते हैं।  ठीक इसी तरह वन्दे मातरम का उद्घोष आज एक साइड में खड़ा है।  बंगाल समेत कई राज्यों में तो इसे बोलना भी खतरे से खली नहीं हैं और सरकारी और सार्वजनिक समारोह में तो इससे दूरी बनाये रखने का एजेंडा बाकयदा निर्धारित होता है। एक लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश में सिनेमाघरों से राष्ट्रगान सरकारी आदेश से दूर ही रहा ,यह अलग बात है कि  यह आदेश लिखित हो या मौखिक !राष्ट्रगान की जगह काफी समय तक सारे "जहां से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा" ले चुका है ,खासकर इमजेंसी के दौर में ! मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि बरेली में शहामत गंज नाम का रेलवे का मालगोदाम और स्टेशन है और उससे कोई एक किलोमीटर की थोड़ी बहुत काम दूरी पर श्याम गंज बाज़ार है और थोड़ा आगे चलकर आगे चलकर कालीबाड़ी का इलाका ,क्योंकि वहां कालीबाड़ी और मान काली का मंदिर कुछ ख़ास दुरी पर नहीं है।  मगर आज तक श्यामगंज  लिखते समय कलम और कम्प्यूटर का की बोर्ड गुलज़ार साहब की तरह ठिठक जाता है की इसे श्यामगंज लिखें या शहामत गंज ?ऐसा सिर्फ बरेली में हो ,नहीं  यह तो भारत की राजनीतिक परम्परा का ध्वजवाहक अंदाज़ हो गया है की वोट न खिसक जाएँ ! गोया मुस्लिम वोट इन्हीं बातों से रोजी रोटी मकान बाकी बातों से बाकी सबके वोट मिलते हैं !
एक हमारी भारत माता हैं,जिनका जिक्र ऊपर आ चुका है। भारत को भारत कहने से भी कम परहेज नहीं है ,माता तो बहुत दूर की बात है।  हिन्दुस्तान कहने में एक अलग तहज़ीब निकल कर आती है। होगा कुछ ऐसा, मगर जो दिखता है वह वोट ,इसमें दो राय नहीं हो सकती। कुल मिलाकर देखा जाए हिंदी और उर्दू को इंसानों की तरह जातियों में बांटकर जिस तरह से देश को राजनीति से सराबोर कर दिया गया है ,वह दिन दूर नहीं जब लोग इन सब लहजों से ही परहेज करके एक नयी तहज़ीब की बुनियाद कायम
करेंगे,जिसके बाद नयी पीढ़ी अपने सपनों का मुल्क बनाएगी
-आशीष अग्रवाल  
पूरी खबर देखें - अमर उजाला शब्द सम्मान समारोह

17 दिस॰ 2019

सात दिसंबर 1992 से अब तक यही रहा श्री राम का अस्थायी मंदिर!


योध्या में सात दिसंबर 1992 को एक अजीब सा सन्नाटा था। होगा पूरे देश में दहशत और अशांति हिंसा का माहौल ,मगर अयोध्या एक बहुअत बड़ा कारज संपन्न हो खुमारी उत्तर रहां था। बेटी विदा होने के बाद जैसे सारे घराती उनींदे से होते हैं ,न भूख न प्यास न काम धंधे पे जाने की जल्दी लिहाजा सोकर भी क्या उठना ,बा सकुच ऐसा ही था अयोध्या का माहौल। हमें तो अपनी ड्यूटी बजानी ही थी, सो नौ बजे तैयार हो गए थे। पता लगा कि राजयपाल के सलाहकार रोमेश भंडारी आ रहे हैं। पहुँच गए। हमारे सामने ही उनको लेकर अफसरों का काफिला वहां आया। आते ही ज्यादातर ने इधर उधर देखते हुए बड़े संकोच और एक तरह से भयभीत कि कोई देख तो नहीं रहा ,विराजमान श्री रामलला को को चुपके से प्रणाम निवेदन कर लिया। बस पलक झपकते का दृश्य था। कैमरे तो वर्जित थे। किसी से कोई बातचीत नहीं। क्या कहना ,क्या सुनना , क्या निर्देश और कौन सी कानून व्यवस्था की चर्चा। क्योंकि सब तो कवायद हो ही रही थी। हो चुकी थी। किसी ने नहीं पुछा क्या हुआ कब हुआ कैसे हुआ ,क्यों हुआ और भी कुछ। सब मूक भाषा के संवाद। बस निगाहों ही निगाहों में ! कुछ देर के बाद सब उस टीले नुमा चबूतरे से उतरे, जिस मलवे पर टेंट में नया राममंदिर बना ,उस पर से वापस उतर कर गाड़ियों में बैठे और चले गए।
योध्या मे उस दिन गजब का सन्नाटा था । एक अजीब सी आशंका और रहस्यमय शांति थी। समझ सब रहे थे । एक दूसरे से जानना भी चाहते थे ,मगर संकोच के मारे पूछ नहीं रहे थे । सबके जेहन मेन सवाल यही घुमड़ रहा था आखिर यह सन्नाटा कितना गहराएगा और आगे होगा क्या ? पूछ कोई किसी से नहीं रहा था । जानते थे कोई क्या बताएगा ? एक और डर था । वह यह कि कहीं किसी भी पल कोई नया  एक्शन न हो जाये ? धार लिए जाएँ ?लिहाजा घरॉन के बाहर भी खड़े होने मे लोग संकुचा रहे थे । हाँ जो चार लोग सड़कों पर आए भी थे, वह ऐसे सुरक्षित स्थानों पर मसलन राममन्दिर आंदोलन के अगुआ संतों के अखाड़ों मे जमा हो गए थे । बाकी अयोध्या की तंग गलियों का सन्नाटा तो केवल वहां दौड़ रही सरकारी गाड़ियां ही तोड़ रही थीं।  न कोई धकड़ी  ,न छापे मारी ,बस इधर से उधर दौड़ती गाड़ियों का मकसद क्या था ,कोई नहीं  जानता था, सिवाय इसके कि सरकार बहुत सतर्क और एक्टिव है ,न जाने कब क्या हो जाए यह दहशत फैलाने के लिए तो काफी था यह मंजर !
स दिन अयोध्या मे पसरा सन्नाटा  इतना जबर्दस्त था कि जब भूख मिटाने के लिए किसी दुकान की तलाश शुरू की तो सब बंद ,फिर बस कोई खाडा या आश्रम ही था, जहां प्रसाद पाकर भूख मिटाने का अंतिम अवसर मेरे पास था । और वही किया। कहते हैं कि अयोध्या मे कोई भूखा नहीं रहता। राजा दशरथ के काल से यह वरदान राम की अयोध्या को प्राप्त है।
-आशीष अग्रवाल 

6 दिस॰ 2019

'अयोध्या' छह दिसंबर 2019 -पहली बार यह ढांचा नहीं ,राम मंदिर है !

छह दिसंबर 1992 की अयोध्या
सात दिसंबर 1992 ,अमरउजाला बरेली की खबर !
'बीती नौ नवंबर को अब सुप्रीमकोर्ट का फैसला आ जाने के बाद भी मेरे विचार से अभी तक राममन्दिर न ही बोला और न ही लिखा गया है ।कहीं न कहीं संकोच है 
भी तक मैंने भी जब भी इस विषय मे लिखा तो विवादित ढांचा ही लिखा ,आज पहली बार उस जगह को राम मन्दिर लिखते हुये ठीक वैसा ही अचरज हो रहा है जैसा 6 दिसंबर 1992 की  उस ऐतिहासिक तारीख को हुआ था जब बह तीन गुंबद गिराए गए थे।  बीती नौ नवंबर 2019 को सुप्रीमकोर्ट का फैसला आ जाने के बाद भी मेरे विचार से अभी तक उस स्थान को किसी भी मीडिया ने और नेता ने भाषण मे राममन्दिर नहीं बोला  और न ही लिखा है । कहीं न कहीं  संकोच है, और यह रहेगा । मंदिर बन जाने तक । हालांकि मामला फिर अदालत मे पहुँच गया है । छह दिसंबर 1992 को शायद ही किसी को यह एहसास हो कि थोड़ी बहुत देर मे यहाँ कुछ ऐसा हो जाएगा जो उन्होने भी सोच रखा है जिनहोने  यह विश्वव्यापी हलचल पैदा कर देने वाला काम कर दिया और उसे उसका नामोनिशान मिटा देने तक पूरा किया । अचरज हुआ था । लगभग सभी हतप्रभ थे । आखों को यकीन नहीं हो रहा था कि जो दिख रहा है वही हुआ है । ,मगर अब फैसला आने तक विवादित ढांचा लिखने की कोई कानूनी बाध्यता अब नहीं है । वैसे अभी याचिकाएं दायर ही हुयी हैं । 
च मे एक अविश्वसनीय ,अकल्पनीय और अद्भुत मंजर था । लाखो की भीड़ कहाँ छिपी थी,किसी को नहीं पता। सवेरा होने से पहले ही माथे पर भगवा पट्टी बांधे , बिना खाये पिये,एक तरह से धार्मिक अनुष्ठान मे भाग लेने जा रहे पूर्ण समर्पण और असीम श्रद्धा जैसे उत्साह के साथ एक ही दिशा मे चले जा रहे दिखने मे हजारों लगते ,मगर हकीकत मे लाखों हो गए कार सेवकों की यह भीड़ सवेरे सात बजते बजते ,जिसजगह को हिन्दू राम मंदिर और कुछ मुसलमान मस्जिद और बाकी बुद्धिजीवी विवादित स्थान कहकर संबोधित कर रहे थे ,अगाध सुरक्षा बालों की मौजूदगी से बेफिक्र और कभी भी गोली चल जाने के पुराने अंदेशे से भी बेखौफ भीड़ ने उस स्थान को  घेर लिया था । सवेरे सात बजे मैं भी उसी स्थान पर था । उस समय  कवरेज के लिए दैनिक अमर उजाला की टीम  की अयोध्या मे मौजूदगी 15 नवंबर से ही होना शुरू गयी थी । और सबसे पहले पहुँचने वाला पत्रकार मैं ही था । 
शुरुआती दिनों मे समूचा इलाका मठ मंदिर आश्रम धर्मशालाएँ घूमने के बाद ऐसा लगता ही नहीं था कि अखबारों मे जो ऐलान छापे दिख रहे हैं ,वाकई उनमे कोई सच्चाई हो भी सकती है । अक्सर उस समय फैजाबाद के एसएसपी डी के राय जो बाद मे सांसद भी बने ,से बात होती थी तो पूछने मे आता था कि क्या तैयारी है और क्या अंदेशा है आपको ! उनका सीधा सपाट जवाब होता था हमे तो कुछ लगता ही नहीं । आखिर यह फौज काहे आ रही है ,कौन भेज रहा है ,कहाँ रहेगी ,कौन इंतजाम करेगा ,कुछ पता नहीं है । जब केंद्रीय सुरक्षा बल यहाँ पहुँच जाते है तब उनके अफसर हमारे पास आते हैं और रहने की जगह मांगते हैं ,जहां स्थान होता है उन्हें दिखा दिया जाता है । इसके पहले और बाद मे हमसे कोई कुछ नहीं पूछता और न बताता है। उस समय लखनऊ यानि उत्तर प्रदेश मे भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और केंद्र मे कांग्रेस की सरकार के प्रधान मंत्री पीवी नरसिंहा राव थे । जो अब राम मंदिर है यानि तब का विवादित ढांचा ,उसके  सामने मानस भवन था । उसमे अक्सर विश्व हिन्दू परिषद ,बजरंग दल कि प्रेस कान्फ्रेंस होती थी और वही एक मात्र जरिया था जिससे यह पता लगे कि 6 दिसंबर को क्या क्या होना है । मगर किसी ने भी अपने मुह से यह नहीं कहा था कि जो ढांचा अभी है उसे गिराया जाएगा ।  बस इतना जरूर कहते थे कि मंदिर तो बनाएँगे , कैसे , देखिएगा , कैसे बनेगा। यानि ढांचा तोड़ देंगे ,जवाब होता था कि नव निर्माण के लिए थोड़ा बहुत ध्वंस तो होता है । बाकी अभी कोई तय नहीं है ।  दूसरी तरफ मामला अदालत मे भी चल रहा था । रोज नए हलफनामे दिये जाते थे और सुप्रीमकोर्ट रोज नए आदेश देता था । वह आदेश अयोध्या मे जमा हो रही भीड़ को कभी रिचार्ज करते थे और कभी फ्यूज कर देते थे । मसला कारसेवा होगी। सरयू से बालू मिट्टी लाएँगे ।  ढांचे की जगह को पहले धुलाई  सफाई करके साफ और पवित्र करेंगे तब न बनेगा राम जी का मंदिर । 
क दृश्य बड़ा अचंभित करता था । तब का ढांचा और अब राममन्दिर परिसर मे अयोध्या आने वाले कारसेवक और देश भर के श्र्द्धालु सुबह सबसे पहले रामलला के दर्शन को लाइन मे लग जाते थे ।  यह क्रम निरंतर चलता था । उसके बाद ही कोई जलपान-भोजन करता था । इतना ही नहीं मंदिर परिसर मे 24 घंटे ड्यूटी देने वाले सुरक्षा बलों के जवान आते और जाते समय रामलला को सबसे पहले  प्रणाम करते थे । माथे पर चन्दन-टीका लगाकर अपनी ड्यूटी शुरू करते थे । मंदिर परिसर किसी भी मौसम मे नंगे पैर ही ड्यूटी दी जाती थी । और जब छह दिसंबर को यह तीन गुंबद वाली इमारत गिर के ज़मींदोज़ हो गयी और उसी के मलवे पर रामलला की मूर्तियों सहित समूचा राम दरबार स्थापित  हो गया तो सात दिसंबर को मंदिर मे पूजा अर्चना करने के लिए पुजारी महंत सत्येंद्र नारायण जी को घर से बुलाया गया ,हालांकि इसके पहले वहाँ तैनात केन्द्रीय सुरक्ष बालों के जवान धूप-दीप-पुष्प आदि अर्पित कर चुके थे । रामलला की बिना घंटे-मंजीरे और मंत्र-शंख के पूजा हो चुकी थी । बाद मे जब पुजारी जी मय भोग की थाली के आए तो विधिवत पुजा भी हुयी । इसके बाद रामलला की पूजा अर्चना मे कोई अडचन नहीं आएगी ,ऐसा आदेश भी सुप्रीम कोर्ट न दे दिया था । 
ह दिसंबर 1992 की सुबह ही जल्दी से जल्दी मौके पर पहुँचने की आपा धापी मे सुबह सुबह ही निकल लिए।  फैजाबाद से अयोध्या तक के रास्ते मे गजब का सन्नाटा था । कुत्ते कबूतर चिड़िया भी मारे सर्दी के दिखाई नहीं दे रहे थे । चाय नाश्ते की तो सोचना भी गुनाह था । जिस शान ए अवध होटल मे हम लोग ठहरे थे वहाँ भी कोई स्टाफ नहीं था । एक कप चाय तो बहुत बड़ी बात थी । जिस टैक्सी  से रोज अयोध्या और आसपास का इलाका घूमते थे, वही टैक्सी वाला उसदिन बमुश्किल तीन  गुना यानि तीन हजार रुपए भाड़ा मांग पाया और तय हुआ । पहुंचे अयोध्या । मानस भवन के नीचे तब पीलीभीत के एडीएम उमेश तिवारी भूख से बिलबिलाते मिले । मैंने पूछा क्या है-बोले जल्दी आओ आलू की टिक्की हैं,बस खत्म  हो रही है । उन्होने जल्दी से मेरे लिए भी  टिक्की के नाम पर सिर्फ उबले हुये आलू नमक लगाकर लिए ,हम खा ही रहे कि भगदड़ मचने लगी । करीब नौ बजे का समय था । दूर से ढांचे के एक गुंबद पर कुछ लोग चढ़े दिखाई दिए ,बीच का सारा स्थान अथाह कारसेवकों से भरा हुआ था । अचानक हो  गया -हो  गया -111हो  गया की आवाज़ के साथ लोग हमारी तरफ को दौड़ने लगे । मैं उमेश तिवारी का हाथ पकड़े वही बगल मे मानस भवन की छत पर जाने के लिए जीने मे घुस गए ,यह सोच कर कि वहाँ से सब दिखता रहेगा और कवरेज भी हो जाएगी । मगर जीने का दरवाजा छत पर से लोगों ने पहले ही बंद के लिया था ,वजह छत भर चुकी थी । वहाँ महिलाओं को सुरक्षित मानकर बंद किया गया था । पुलिस ने ही । 
ब जो हमारी दौड़ शुरू हुयी वह भारी दहशत से भरी हुयी थी । भागते रहे ,कहीं भी एक क्षण को सुरक्षा बल ठहरने नहीं दे रहे थे । करीब 11 बज गए थे । कुछ और लोग भागते हुये आए बोले तोड़ दिया । कोई यकीनन नहीं कर रहा था । हम फिर भगाए गए । भागते रहे । मुख्य सड़क से फोर्स के जवान हांक देते और आबादी मे भी डर पूरा ही था । किसी ने खेतों की तरफ से फैजाबाद का रास्ता बताया ।  फिर भागे । फैजाबाद सात किलोमीटर था । भागते भागते करीब तीन बजे रास्ते बदलते बदलते आखिर फैजाबाद दिखा । मगर हमे तो अयोध्या जाना था । सोचा चलते हैं जो होगा देखा जाएगा । कोई साथ नहीं । अकेला ही था । कहीं कहीं भगवा ,टीका चन्दन चोटी धारी मिले । और दाढ़ी वाले भी। शुक्र था लोगों ने नाम और परिचय पत्र देखकर जाने दिया । इस तरह पूछते पाछते  शाम सात बजे अंधेर मे अयोध्या की रोशनी दिखी । पता लगा सब सफा चट हो चुका है यकीन नहीं हुआ । पूछताछ की  कि वाकई खबर सही थी । बहुत मन हुआ एक बार मौके पर देखा जाये मगर सब रास्ते बंद कर दिये गए थे । भूख के  मारे बुरा हाल था । मंदिरों और अखाड़ों से साथी ओंकार सिंह भोजन की  व्यवस्था कर रहे थे । वहाँ सब बेखौफ व्यवस्था चल रही थी । अयोध्या के भीतर जैसे कोई काम सम्पन्न हो जाने की तसल्ली सी थी । देर रात में एक बार फिर उधर गए ,जबरदस्त रौशनी में नहाये रामलला का स्थान एक मलवे के ढेर सा था। अब वहाँ एक भावी ऐतिहासिक मंदिर बनेगा म्जो दुनिया के लिए आकर्षण के साथ आस्था का केंडा भी होगा ही । 
कुछ और links :-
१- http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post_11.html?m=1
२-http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post_9.html?m=1
३-http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post_8.html?m=1
४-http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post_6.html?m=1
५-http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post.html?m=1 
-आशीष अग्रवाल 

31 मई 2019

कौन अलग करता है भारत से मुसलमानो को !

डा फरीदा सुल्ताना

आज़ादी के 70 साल बाद भी आज भा मुस्लिम समाज वहीँ खड़ा है, जहां से उसने आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान की तरक्की का वह सपना संजोया, जिसने मुस्लिमों के भीतर भी देश पर मर मिटने का जज़्बा पैदा किया था ,जो उस समय  पूरे अखंड भारत के जेहन में था।देश के तमाम   राजनीतिक दलों के वोट बैंक बन चुके मुस्लिम समाज से पूछ रही हैं राष्ट्रवादी चिंतक ,विचारक -
डा फरीदा सुल्ताना  

बादी के हिसाब देखा जाए तो आज भारत में मुस्लिम समाज देश की कुल आबादी का लगभग  पाॅचवा हिस्सा है, इसके बावजूद जातिगत राजनीति के दौर में यह समाज कहीं भी नहीं ठहरता । ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई में भारत के मुस्लिम नहीं थे ,मगर हाँ उस समय सब भारतीय ही थे। आज़ाद होने से कुछ ही समय पहले भारत के नीति नियामकों ने एक स्वरचित और सुविचारित षड्यंत्र के तहत जातिगत जहर से विभाजन की रेखा खींची ,नतीज़ा है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी आज भारत का मुस्लिम समाज वही खड़ा है जहां से उसने आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान की तरक्की का वह सपना संजोया था, जिसने मुस्लिमों के भीतर भी देश पर मर मिटने का जज़्बा पैदा किया था ,जो उस समय पूरे अखंड भारत के जेहन में था। नतीजतन ७० साल बाद भी  भारत का मुस्लिम समाज वहीँ खड़ा तरक्की के सपने देख रहा है,जहां पहले था ।
ज भी मुसलामानों के सामाजिक,आर्थिक,शैक्षिक स्तर में कोई  बड़ा बदलाव तो आया नहीं बल्कि उन राजनीतिक दलों की आँख की किरकिरी बन जरूर गए जिनके वोटर  उन्हें नहीं बनने दिया गया महज इसलिए देश में जातिगत आधार पर एक विभाजन रेखा स्पष्ट रूप से खींची जा चुकी थी। थे । सवाल यह है कि  मुस्लिम समाज जिन पार्टियों और नेताओं का पिछलग्गू बना रहा ,उनका रवैया भी मुस्लिम समाज के प्रति कैसा रहा,यह आज के  हिन्दुस्तान का मुसलमान खूब अच्छी तरह समझ चुका है  ।दूसरी अहम बात यह है की मुसलमान जिन पार्टियों के साथ लगे रहे उन सबके नेता भी हिन्दू ही हैं ,इसका  मतलब है कि मुसलमानों के लिए केवल भाजपाई हिन्दू ही राजनीतिक तौर पर अछूत है । राजनीति में सब एक दूसरे को गाली भी देते है, झगड़ते भी है पर बाद में  सब एक हो जाते हैं लेकिन इस जंग में मुस्लिम कहां खड़े दिखाई देते हैं? वहतो बस इतने भर से खुश हो जाते हैं कि गैर भाजपाई हिन्दू नेता ने रमज़ान में  रोजाअफ्तार करा दिया, किसी दरगाह में  टोपी पहन कर चादर पोशी कर दी, और मुस्लिमों ने मान लिया ।
मेरा तो हमेशा से मानना है कि मुस्लिम भीभारतीय हैं । इस देश के कानून को मानना उनका भी उतना  दायित्व है   कर्तव्य है जितना किसी अन्य भारतीय का। फिर मुख्य धारा से  मुस्लिम ही अलग क्यों ? । देश वन्दे मातरम बोलता है हम आँखे तरेरते हैं । देश  भारतमाता की जय बोलता है हम खामोश रहते हैं, क्यों ॽ क्या  केवल इन दो नारों से हमारा  ईमान खतरे में पड़ जाएगा । क्या  हमारा  ईमान  इतना  कमजोर या फिर मोम का है जो  पिघल जाएगा, शायद नहीं । तो फिर आपको देश के साथ चलने में  दिक्कत कहां है । क्यों आजतक आप उन राजनीतिक  दलों के साथ खड़े रहे जिन्होंने  आपका सिर्फ  इस्तेमाल किया।
ज देश में  हमारी पहचान देशविरोधी की बन गई ,इसका कारण भी ये गैर भाजपाई दल ही हैं ।आज यदि  कांग्रेस सत्ता में आ भी जाती तो हम आप अडानी अम्बानी नहीं बन जाते । जहां थे वही रहते । सच्चाई यह है कि  हमारी  औकात बडा बनने की  नहीं है  । अब वक़्त आ गया है कि चलना हिन्दुओं के पीछे ही है तो भाजपा के हिन्दुओं के पीछे चलने में दिक्कत नहीं होना चाहिये । गम्भीरता से सोचने का समय है क्योंकि  मुस्लिम समाज को देश की  मुख्यधारा से अलग थलग करना भी गैर भाजपाई दलो की रणनीति का ही हिस्सा है। यदि  मुस्लिम समाज ने अभी भीआँखें  नहीं खोली तो पीढ़ियां अन्धेरे में  रहने को मजबूर हो जाएगी। मुझे यकीन है जिस दिन आपकी सोच बदल जाएगी  उसी दिन से हमारे बच्चों का भविष्य  उज्ज्वल  दिखने लगेगा । सिर्फ वोट ही आपका सोच भी आप ही की ,मगर किसी और की बनाई हुयी ।

10 मार्च 2017

इन बच्चों ने जीवन के रंगों से खेली होली !

होली के मौके पर मस्ती में डूबे पूजा सेवा संस्थान के बच्चे।  
रंग भी थे। गुलाल भी। और फूल भी। मगर उनके लिए ये सब बेमानी था। रंग गुलाल और फूल तो उनके लिए होली का माहौल  बना रहे थे, जो उनके साथ होली खेलने आये थे। बाहरी दुनिया से दूर ,अपनी ही दुनिया में मस्त ये बच्चे ऐसे हैं जिनके लिए जीवन में सुख दु:ख, सुविधा ,भूख प्यास अपने और पराये का कोई भेद कभी रहा ही नहीं।  जो प्यार से थपथपा थे वही इनका अपना है। और ये पल भर से कम समय में किसी के भी प्यार को अपनी आत्मा से ऐसे स्वीकार करते हैं -मानों हम से ज्यादा उनका अपना कभी कोई था ही। कुछ बच्चों के माता-पिता भी वहाँ थे ,मगर उनके  लिए तो सब अपने थे। जरा हाथ फेर दो तो बस आपसे ज्यादा प्यार लुटाने को तो वे खुद पहले से आतुर  हैं -बिना किसी अपेक्षा के।
खुशीमे  करते नाचते गाते बच्चे !
आज इन बच्चों के स्कूल में होली का उत्सव था । बरेली के डीडी पुरम में इन अद्भुत बच्चों का स्कूल पूजा सेवा संस्थान " कई साल पहले रोटरी क्लब के पूर्व गर्वनर  पीपी सिंह और उनकी पत्नी मालती सिंह ने ऐसे बच्चों के लिए ही खोला था। हम-आप तो मंद बुद्धि इसलिए कहेंगे क्योंकि उंनकी बुद्धि में क्या है और वे किस दुनिया को जी रहे हैं यह हम और आप जैसे साधारण इंसानों की समझ से परे हैं ,उनकी बुद्धि हमारी आपकी तरह नहीं सोचती।  वह जो सोचते हैं ,हम समझ नहीं सकते।  मगर उन्हें मालूम था कि सामने रंग हैं, गुलाल है ,फूल हैं और साथ में गाने और तराने भी तो होली ही है। यह समझने में उन्होंने कुछ भी देर नहीं लगाई ,जो बोल सकते थे। खूब थिरके। नाचे और सबके गुलाल लगाने को बेताब !
काफी समय से सोच रहा थे इन बच्चों के साथ कुछ समय बिताने केअवसर मिले। आज मित्र पीपी सिंह ने अचानक बताया की पूजा सेवा संस्थान में होली का उत्सव है। बच्चे होली खेलेंगे। आइये। स्कूल में प्रवेश करते ही एक बच्चे ने हाथ मिलाकर मेरा स्वागत किया। अद्भुत एहसास था।  इन्हें मालूम है कोई आया है ,उसका स्वागत करना है। आगे बढ़ा तो हाल में होली खेलने के लिए तैयार बैठे बच्चे एकएक करके हाथ मिलाने को बेताब। मुझे लगा- जितना प्यार इन बच्चों के भीतर कुदरत ने भर दिया है ,वही इनका जीवन और जीवन की ऊर्जा है। हम खुद को सामान्य पढ़ा-लिखा कुछ भी समझ लें ,हमारे पास शायद उतना प्यार इन्हें देने के लिए नहीं है, जितना वह इस दुनिया में प्राकृतिक उपहार के रूप में लेकर आए हैं। हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
एक शुभी है। मैंने  पुछा क्या पढ़ती हो ?तपाक से बोली मैं पढ़ती भी हूँ पढ़ाती भी हूँ।  मैंने कहा पढ़ाओ ,पास बैठे बच्चे से बोली चलो पढ़ो और शुरू हो गयी वन  टू थ्री -मैंने कहा नहीं ,हाल में आकर सारे बचो को पढ़ाओ। उठी और हाल के बीच में आ गयी,ऐसे सारे बच्चों को कमांड किया जैसे वाकई टीचर की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है।  सबको अपनी तरफ आकर्षित करके उसने एबीसीडी पढ़ानी शरू कर दी। मैं हतप्रभ था।  एक और बच्चा मेरे पास आया।  बोला आप मेरे दोस्त।  मैंने कहा पक्का दोस्त।  वह ठीक से बोल नहीं सकता था ,मगर अपने हाव भाव से उसने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए मुझे एहसास कराया कि वह क्या कह रहा है। "इस दोस्त का यह आत्मीय भाव मुझे भीतर तक एक सच्चे दोस्त का अहसास करा गया"

तीन मई २०१० को खुले इस स्कूल में शुरुआत में करीब सात बच्चे थे और आज पांच साल से लेकर २७ साल तक की उम्र के ४२ बच्चे हैं।  कहने को एक बार सोचा जा सकता है कि संख्या कोई ख़ास नहीं अगर हकीकत में बहुत ज्यादा है।  बच्चों की हालत देखकर लगता है प्रकृति ने इन्हें बाहरी दुनिया के मोहजाल में फसने से दुनिया में आने से पहले ही रोक लिया था। हरिद्वार के संत महामंडलेश्वर स्वामी उमाकांता नंद जी ने  एक बार  इस स्कूल में आकर इन बच्चों के माता पता को संबोधित किया था और यह प्रतिपादित किया की ये बच्चे विकलांग या  दिव्यांग नहीं बल्कि विलक्षण हैं। संत हैं। पूर्व जीवन में भी महान संत ही थे ,कहीं कोई छोटी सी त्रुटि हो कारण ईश्वर ने इन्हें पुनः पृथ्वी पर जन्म दिया और ऐसे घरों में जन्म दिया जिससे उस जहां इनकी सेवा चिकित्सा केजरिये इनके माँ बाप के भी  कर्म पूरे हों और उन्हें भी इनकी सेवा  फल मिले।
इस स्कूल की स्थापना के विषय में पीपी सिंह बताते हैं कि इसी तरह का एक स्कूल चला रहे अशोक सक्सेना और ललित गुप्ता जब अपनी संस्था चलाने में परेशानी महसूस करने लगे तो उन्होंने उनके स्कूल को ही चलाने का प्रस्ताव दिया ,बस यही से यह विचार अंकुरित हुआ और फिर रोटरी क्लब बरेली नार्थ और इनरव्हील के साथ विचारविमर्श के बाद उन्हों खुद ही यह स्कूल खोलने का मन बना लिया। वह खुद और क्लब के सदस्य महिलायें और पुरुष दोनों ही इसमें अपना भरपूर योगदान देकर आज इस स्कूल के सफल संचालन के लिए लगे हुए हैं।  इसी का परिणाम है इस स्कूल का एक विद्यार्थी अर्पण स्पेशल ओलम्पिक में भी गोल मेडल जीत कर आया। उसने स्कूल और देश दोनों का नाम रोशन किया।
इतना  ही नहीं कुछ उदारमना समाज सेवियों ने तो स्कूल के सफल संचालन  के लिए कुछ बच्चे गोद ले लिए हैं,और उनकी फीस आदि का खर्च वह खुद उठाते हैं।
स्कूल में वैसे तो कोई फीस निर्धारित नहीं है ,जिसकी जितनी सामर्थ्य हो ,वह उतना दे देता है।  न्यूनतम और अधिकतम की कोई सीमा इसलिए नहीं तय की जा सकती क्योंकि बच्चों को अधिकतम सुविधा देने की कोशिश ही उनका लक्ष्य है। बहुत सीमित संसाधनों में ,एक किराये के मकान में खोले  गए इस स्कूल में आज बच्चों के लिए एसी भी लगा दिए गए हैं,जो इनकी सेहत और सुविधा के लहाज से बहुत जरूरी था।  इन बच्चों की शिक्षा के बजाए उनका लक्ष्य यही है कि बच्चे जितने भी सक्षम हैं उनकी उस स्थित में और गिरावट न  आये और वह दिन प्रतिदिन विकसित होकर खुदके काम में सक्षम  हो जाएँ ,उनके भीतर  संभव हो उनकी छिपी प्रतिभा को विकसित किया जाए इसके लिए स्कूवल का स्टाफ तन प्राण से लगा रहता है।  इसी का नतीजा है कि आज स्कूल के बच्चे बेहतरीन नृत्य और अन्य एक्टिविटीज़ में सक्षम हैं।   कोई फोटो स्टेट करना जनता है ,तो कोई काफी अल्पविकसित बच्चों को सम्हालने में मदद  करता है ,तो कोई बच्चों को फिजियोथेरपी करवाता है।
पूजा सेवा संस्थान में एक जिम भी है , लगभग सभी जरूरी मशीनें लगा दी गयी हैं ,एक फिजियोथेरेपिस्ट भी है ,जो बच्चों को नियमित अभ्यास करवाते हैं ,जिससे उनकी शारीरिक और मानसिक विकास में मदद मिलती है।  अब काफी बच्चे खुद भी आगे आकर  की पहल करते हैं। इतना ही नहीं स्कूल की शिक्षिकाएं इन बच्चों को इतना स्नेह देती हैं की बच्चे उनसे इस कदर अपना पन महसूस करते हैं जिससे उन्हें घर की कमी महसूस ही नहीं होने दी जाती ,कोशिश यही रहती है ,फिर भी ये बच्चे खुश रहें यह मुख्य लक्ष्य है।

बच्चों की सुरक्षा का स्कूल में ख़ास ध्यान रखा जाता है। इसके लिए जरूरी स्टाफ के साथ सीसी टीवी कैमरे भी लगवाए  हैं,आख़िरकार ऐसे बच्चों की जिम्मेदारी एक बड़ी चुनौती है। अक्सर कोई बच्चा अचानक स्कूल से बाहर निकल भी जाता है ,तो उसे फौरन देख लिया जाता है। बच्चों को घर से लाने ले जाने के लिए वाहन की भी व्यवस्था की गयी है।   स्कूल के बारे में ऑनलाइन जानकरी प्राप्त करने के नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।        
पूजा सेवा संस्थान,बरेली,      
Pooja Sewa Sansthan on Facebook                                                 -आशीष अग्रवाल 

18 अक्तू॰ 2016

राजनीति और विकास के अद्भुत शिल्पी नारायण दत्त तिवारी !

जन्म 18 अक्तूबर 1925- आज 92वें जन्म दिवस पर 
ज अपना 92वां जन्म दिवस मना रहे वरिष्ठ राजनेता एवं उत्तर प्रदेश के चार बार और  उत्तराखण्ड राज्य की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री  रहे नारायण  दत्त तिवारी  भारतीय राजनीति मे हमेशा एक नायाब शख्सियत के साथ चर्चा मे रहे । एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उनके द्वारा रची गयी विकास की कल्पना को उन्होने कभी आने वाली सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा । खुद ही अपनी हर कल्पना को मूर्त रूप दिया ।उत्तर प्रदेश हो उत्तराखंड ,उनके पास आने वाले फरियादियों कभी किसी को लाइन नहीं लगानी पड़ी । उनके खास निर्देश थे कि जो अभी आए,उसे सम्मान के साथ बिठाया जाये ,पानी और चाय के साथ कुछ नाश्ता दिया जाये । उसके बाद वह देर रात तक 12 -12 बजे तक लोगों से मिलते थे । थकान उनके पास से होकर नहीं गुजरती थी । 
त्तर प्रदेश मे उनके द्वारा बसाया गया नोयडा आज देश राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और एनसीआर मे विकास का प्रतिमान है । एक यही नहीं ,हजारों विकास के काम ऐसे हैं ,जो उनके बाद के शासकों के अनुकरणीय बने हैं, मगर उन्होने कभी अपने कामों का गुणगान नहीं किया । उनकी हर योजना और सोच राजनीतिक दलों और सरकारों के लिए प्रेरणा और अनुकरणीय बनी । 
नारायण दत्त तिवारी का बरेली से गहरा नाता रहा । बरेली मे आजादी के पहले से चला आ रहा काष्ठ कला केंद्र नाम का जिसे कार्पेंटरी स्कूल कहते थे ,उसमें उनके पिता पूर्ण नन्द तिवारी नौकरी करते थे । वह जब बरेली आए इस स्क्लूल की चिंता जरूर करते थे और इसके विकास के लिए कुछ न कर पाने की उनके मन मे एक टीस रही । आज उस स्कूल का नामोनिशान मिट चुका है और उसकी जमीन पर उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के दौर मे विकास भवन और और इससे पहले इसके आधे हिस्से मे महिलाओं का सरकारी डिग्री कालेज खोला जा चुका है । आजादी के आंदोलन के दौरान वह बरेली सेंट्रल जेल मे बंद भी रहे । 
अपने पिछले जन्म दिन पर 16 अक्तूबर 2015 वह बरेली आए थे । अगले दिन उन्हें हल्द्वानी जाना था । और वहाँ 18 अक्तूबर को होने वाले अपने प्रशंसकों के द्वारा आयोजित जन्मदिन समारोह मे हिसा लेना था । एक साथ लंबी यात्रा के लिए उनकी सेहत अब इजाजत नहीं देती । इसीलिए वह बरेली आए । बरेली से विशेष लगाव भी इसकी एक वजह तो थी ही । 
1989 के चुनाव मे उत्तर प्रदेश मे कांग्रेस की आखिरी सरकार के मुखिया भी वही थे और उसके बाद जब मुलायम सिंह यादव पहली बार जनता दल और भाजपा की गठबंधन सरकार के मुखिया बने तो उनके सामने अपनी सरकार का बजट पेश करने की बहुत बड़ी चुनौती थी । उस समय भी यह बात चर्चा मे रही कि बजट तिवारी जी ने बनाया है । नोयडा के लिए उनका सपना अभी अधूरा है । वह इसे देश का एक और केंद्र शासित प्रदेश बनाना चाहते थे । इसको बसाने के लिए उन्होने देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों को खुद फोन कर करके व्यक्तिगत रूप से बुला-बुलाकर अपने उद्योग लगाने के प्रेरित किया उनकी मुश्किलें सुनी और फिर उन्हें हाथों हाथ हल किया । 
16 अक्तूबर 2015को  बरेली मे पुरानी यादें ताज़ा करते लेखक आशीष अग्रवाल के साथ 
ह जहां होते थे ,उनका मंत्री या मुख्यमंत्री के तौर पर दफ्तर वहीं होता था । जो अभी सामने आया ,जो फरियाद की ,मौके पर ही उसका समाधान और आदेश करना उनकी कार्यशैली का हिस्सा थी । वह जहां भी जाते थे ,सबसे पहले उस जिले का अखबार उनके सामने पेश करना डीएम की पहली ज़िम्मेदारी होती थी । पहले के दौर मे मीडिया मे एक प्रचलन था कि जब भी कोई वीआईपी मूवमेंट होता था था अपने और आसपास के इलाके की खास समस्याओं पर उनका और उनके विभाग से संबन्धित समस्याओं पर खासकर लेख और रिपोर्ट अखबार मे दी जाती थी । और तिवारी जी अखबार देखते ही सबसे पहले उस मसले पर अफसरों से बात करते थे ,उनकी खबर लेते थे और हाथों हाथ अपना फैसला सबके सामने जाहिर कर  देते थे । इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता था कि मीडिया की रिपोर्ट्स को अनदेखा करना प्रशासन के बूते के बाहर की बात होती थी । सरकार और प्रशासन मे मीडिया की उपयोगिता का इससे बढ़िया माध्यम कोई और हो नहीं सकता था । इसके साथ मीडिया को समाज के प्रति जिम्मेदार बनाने मे उनकी इस शैली बहुत बाद योगदान रहा । 
बरेली मे मेरा आत्मीयता से मिलते हुये ,साथ मे उज्ज्वला शर्मा । 
तना ही नहीं ,अपने कार्यक्रमों के दौरान वह अपनी पार्टी के सांसदों और विधायकों के अलावा यदि  विरोधी दलों के लोग भी उनसे मिलने जाते थे ,तो उनसे भी वह सबसे पहले यह पूछ लिया करते थे कि आज यहाँ किस चीज़ की जरूरत सबसे ज्यादा है ,अगर कोई उन्हें मौखिक रूप से भी समस्या बता कर अपना सुझाव देता तो वह अपने भाषण मे तत्काल उसकी घोषणा कर दिया करते थे । उनके लखनऊ से चलने से पहले जिले के अधिकारियों से बात करके पूरी तैयारी करते थे कि मुख्यमंत्री से किस परियोजना की घोषणा करवानी है । विरोधी दलों के नेताओं को भी को भी हमेशा महत्व दिया । यही वजह थी कि उनसे मिलने जाने वालों मे सभी दलों के नेता होते थे।आज के दौर मे राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्री समेत केंद्रीय मंत्री से मिलने वालों की जगह 100 मीटर दूर होती है और वह सिर्फ विरोध के लिए जाते हैं । उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहते हुये उन्होने हमेशा विकास की परियोजनाओं को राजनीति से ऊपर रखा । 
राजनीति के भी वह एक माहिर खिलाड़ी रहे । एक हद से ज्यादा अतार्किक विरोध को उन्होने कभी पनपने नहीं दिया । उनके लिए इस बात का कोई मतलब नहीं था कि इस जिले मे उनकी पार्टी का सांसद नहीं है और विधायक कितने हैं ,कहाँ के लोगों ने उनकी पार्टी के उम्मीदवार को हरा दिया है । विकास और राजनीति को उन्होने हमेशा अलग रखकर देखा । उत्तर प्रदेश के खाद कारखाने और गैस की पाइपलाइन यहाँ के लिए एक दिवा स्वप्न थी ,उन्होने ऐसे चुटकियों मे इन परियोजनाओं की बुनियाद रखी मानों कि कुछ किया ही नहीं । मात्र बरेली मण्डल मे ही खाद के तीन तीन कारखाने लगवा देना अपने आप मे बड़ी बात है । अपने संसदीय और निर्वाचन क्षेत्र नैनीताल मे गन्ने की भारी  पैदावार और किसानों के सामने इसकी बिक्री की समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ नारायण दत्त तिवारी ने वहाँ चीनी मिलों की स्थापना ऐसे कि जैसे आज सांसद और विधायक अपने अपने क्षेत्रों मे इंडिया मार्का हैंडपंप लगवा देते हैं । 
बरेली से हल्द्वानी जाते समय भी मुझे अपने साथ बाहर तक लाये ,साथ मे रोहित शेखर । 
ड़कों को देश के भाग्य रेखाएँ बताकर उन्होने देश के विकास मे सड़कों की महत्ता को न केवल समझा , बल्कि आने वाली पीढ़ियों को एक संदेश भी दिया ,जो आज तक देश के लिए अनुकरणीय बना हुआ है । बरेली की सेमीखेड़ा चीनी मिल उनकी इसी योजना का परिणाम थी ,क्योंकि यह इलाका नैनीताल से लगा हुआ है था जो अब ऊधम सिंह नगर के नाम से जाना जाता है । मुझे याद है केंद्र मे उद्योग मंत्री के तौर नार्वे और स्वीडन के दौरे के बाद वह जब अपने निर्वाचन क्षेत्र के दौरे पर आए, तो उन्होने सड़कों के निर्माण के लिए हाटमिक्स तकनीक का उत्तर प्रदेश मे श्रीगणेश किया । उस समय नैनीताल सड़कों के लिए पूरे देश मे चर्चित हो गया था । यह कहा जाने लगा था कि सड़कें देखनी हैं नैनीताल की देखो । 
म आदमी और देश प्रदेश की हर जरूरत को उनहोंने जितनी शिद्दत के साथ महसूस किया ,आज के दौर उनकी जैसी सोच के राजनीतिक दल और उनके नेताओं कि संख्या गिननी मुश्किल होगी । 1990 मे राजीव गांधी हत्या के बाद के संसदीय चुनावों मे नैनीताल से मात्र 800 वोटों से हारने के बाद उन्होने अपनी इस पीड़ा को व्यक्त भी किया था कि देश की जनता को विकास से कोई सरोकार  नहीं है ,उस चुनाव मे नैनीताल ने देश के भावी प्रधान मंत्री को हराया था ,जिसका नैनीताल के लोगों ने उनके सामने प्रायश्चित स्वरूप उनसे खेद भी जताया था । इन पंक्तियों  का लेखक उस समय का गवाह है ,और इसकी रिपोर्टिंग तब मैंने अमरउजाला मे मैंने प्रकाशित भी की थी । यह वह समय था जब वह अपनी हार से उबर कर एक बार फिर पूरे जोश के साथ अपने संसदीय क्षेत्र  मे विकास यात्रा लेकर निकले थे । उस यात्रा की कवरेज के लिए उस समय देश के लगभग सभी राज्यों के प्रमुख अखबारों के साथ विदेशी मीडिया भी यह देखने आया था कि एक हारा हुआ बड़ा राजनेता किस हौसले के साथ अपने क्षेत्र मे फिर से जा रहा है । उस यात्रा मे उन्होने अपने क्षेत्र की जनता से शिकवा नहीं किया बल्कि उन्हें उनके फैसले के लिए प्रणाम किया । उस दौरान उनकी जनसभाओं मे उनके भाषण का पहला वाक्य होता था -आपके फैसले के लिए आपको प्रणाम -बस यही एक छोटा सा वाक्य हजारों की भीड़ के लिए उनकी आँखें नम कर देने के लिए काफी होता था । 
उत्तरखंड के मुख्यमंत्री आवास मे  मैं और वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानन्द मिश्र । 
त्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होने इस नए राज्य के विकास की जो परिकल्पना की , वह शायद किसी के बूते की बात नहीं थी । हरिद्वार की बंजर ऊसर जमीन और राख़ के बड़े बड़े ढेरों वाले खौफनाक इलाके मे उद्योगों के विकास की एक ऐसी संरचना सिडकुल खड़ी कर देना गोया कि उद्योगों का जंगल बसाया गया हो ,यह उनकी विकास के प्रति ललक और देश के भविष्य के प्रति गहरी चिंता का ही परिणाम था ।बिजनौर जिले के नजीबाबाद और हरिद्वार के बीच मे गंगा के बीच से होकर जाने वला रास्ता जिन्हें रपटे कहा जाता था ,हर साल बरसात मे यह मार्ग सैकड़ों लोगों की जान ले लेता था और बसें तक इसमें बह जाती थी ,उन्होने मुख्यमंत्री बनते ही एक पत्रकार के सुझाव पर इसकी परियोजना बनाने का आदेश दिया और खुद और केंद्र से इसकी मंजूरी करवाकर इस मार्ग को एक नया राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित करवा दिया । उत्तराखण्ड को उत्तराखंड से जोड़ने के साथ उत्तर प्रदेश से जोड़ने के लिए यह एक ऐसा काम हुआ ,जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । वह भी तब जब कि केंद्र मे भी कांग्रेस की सरकार होते हुये वह कभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने नहीं गए । इसकी वजह यह थी कि जब वह केंद्र मे राजीव गांधी की सरकार मे वित्त मंत्री थे तब मनमोहन सिंह उनके वित्त सचिव थे ।
-आशीष अग्रवाल

31 अग॰ 2016

भारत के इस तंत्र मे तो "लोक" का दम घुटता है !

अमर उजाला 30 अगस्त 2016  मे प्रकाशित 

भारतीय लोकतंत्र और चुनाव प्रणाली इस देश के हक़ में है या इस देश के भू-भाग के और इस देश के आम नागरिकों के हक़ में,यह सवाल आज  शुरू हो चुकी नई नई राजनीतिक परमपराओं की वजह से बहस का विषय है। वर्तमान में सभी राजनीतिक दल ठीक उसी तरह से जनप्रतिनिधित्व कानून के रोम छिद्रों के भीतर माइक्रोस्कोप के जरिये अपने हित खोजने में लगे हैं और काफी हद तक उन्होंने खोज भी लिए हैं। 
पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने चुनाव आचार संहिता का डंका और डंडा बजा या तब से हमारे नीति नियामकों ने ऐसे बहाने तलाश लिए हैं, जिनके जरिये वह कानून की अवहेलना से तब तक बचे रह सकते हैं, जब तक इसके खिलाफ माहौल नहीं बनता।  और इस तरह पिछले दो चुनावों से इस देश में राजनीतिक दलों द्वारा नए भ्रष्टाचार को जन्म दे दिया गया है और मजे की बात ये है इस मुद्दे पर सब एक हैं।  ठीक उसी तरह जैसे जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तों पर सबकी बोलती और बुद्धि बंद हो जाती है ,ऐसे सिर्फ जनता को ही अपने लिए लोकतंत्र का साफ़ सुथरा रूप बरकार रखने के लिए आगे आना होगा।  
स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं के निर्माण और उनकी रक्षा के लिए ही चुनाव आयोग का गठन किया गया है । और यही आयोग का दायित्व है । कोई भी चुनाव देश मे भ्रष्टाचार का आधार हैं । देश मे काला धन बाहर निकलता है ,महंगाई बढ़ती है और हिंसा भी होती है । सरकार प्रशासन का भी समय ऊर्जा और धन की बरबादी होती है । सिर्फ इस वजह से कि चुनाव मे चुनाव प्रचार का समय दिया जाता है ,यह एक बहुत पुराना नियम है । इस देश मे रोज चुनाव ही होते रहते हैं ,भले ही मतदान न हो, इसलिए कि राजनीतिक दल और निर्वाचित सरकारें सब एक ही काम पर लगे रहते हैं । अगला चुनाव ऐसे मे किसी भी राज्य ,और देश के आम चुनावों के अलावा स्थानीय निकाय चुनावों मे चुनाव प्रचार के लिए दिये जाने वाले समय और चुनाव खर्च के प्रावधान को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए । 
ज के दौर मे भारत की सभी सरकारें लगभग 20 सालों से देश मे चुनाव सुधारों की बात करते हुये सत्ता से बेदखल हो चुकी हैं ,मगर देश की चुनाव प्रणाली मे अभी तक कोई ऐसा सुधार नहीं सामने आया ,जिससे वाकई लोकतन्त्र की स्वच्छता और शुचिता के साथ मतदान की पवित्रता भी बनी रहे । लोकसभा या हो विधान सभा चुनाव, शायद ही देश का कोई हिस्सा ऐसा बचता होगा जहां मतदान केन्द्रों पर कब्जे  की कोशिशें न की जाती हो। इसके अलावा पूरे के पूरे गाँव के वोट ही किसी एक प्रत्याशी के पक्ष मे पड़ जाना उसकी लोकप्रियता का पैमाना माना जाता है ,जबकि यह लोकप्रियता भय पर आधारित होने मे कोई शक नहीं होता ।
देश मे चुनाव सुधारों के लिए टी एन शेषन नाम के एक मुख्य चुनाव आयुक्त बहुत जाने और पहचाने गए ,उन्होने जो भी किया उसे आज भी इसलिए याद किया जाता क्योंकि इससे पहले के सभी चुनाव आयुक्त सरकार के खिलाफ नहीं जाते थे ,क्योंकि चुनाव परिणाम भी कांग्रेस के खिलाफ जाएंगे, ऐसा नहीं माना जाता था । सवाल यह नहीं है कि श्री शेषन ने क्या किया और क्या नहीं किया ,आखिर चुनाव आयोग की नीति  नियामक संस्था भी भारतीय संसद ही है और उससे पारित कानून और नियमों को ही चुनाव आयोग को लागू करवाना होता है । बस सिर्फ इतना फर्क होता है -चुनाव के समय चुनाव आयोग के काम मे सरकारी दखल जाहिर तौर पर नहीं दिखाई देता । यह बात इसलिए गलत नहीं है क्योंकि सत्तारूढ़ दल चुनाव आचार संहिता से लेश मात्र भी सतर्क या भयभीत नहीं दिखाई देता ।
चुनाव सुधार के नाम पर अब तक देश मे जो भी किया गया वह कितना प्रभावी रहा ,यह जानने की कोशिशें भी चुनाव के बास आने वाली सरकारें ठीक से नहीं करती ।  चुनाव के बाद ऐसा लगता है जैसे चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है जो चुनाव के बाद स्वतः भंग सी हो जाती है या अस्तित्वहीन हो जाती है ,जबकि लोकतन्त्र मे यही एक मात्र ऐसी संस्था है, जो सर्वाधिक गतिमान और सशक्त दिखाई देनी चाहिए । विकास के नाम अपर भारत आज तक दुनिया भर से नयी नयी तकनीक और साधन,सहायता लेता रहा है ,मगर हमने आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी देश से उसके उन क़ानूनों को नहीं लिया जिनके जरिये उन्होने अपने देश मे चुनाव सुधार के साथ आम जन के हित मे उपयोगी और सुविधाजनक कदम उठाए हैं ,जिनके अभाव मे उनके देश की जनता असुविधा महसूस करती रही है और उन्होने उसे बदला । दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत मे आने वाली हर सरकार ,चुनाव के पहले कितनी ही भ्रष्टाचार की परतें खोलने की बातें करे मगर चुनाव के बाद वह खुद आम जनता को,उसी जनता को जिसने उनसे वोट लेकर सरकार बनाई है ,ऐसे क़ानूनों से बांधने लगती है जिससे आम मतदाता का दम घटता हुआ नजर आता है ,मगर पाँच साल की लाचारी उसे सब्र के इम्तेहान मे ले जाती है ।
राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा पत्रों और वादों के साथ चुनाव प्रचार के दौरान उस समय सतारूढ़ दलों की नीतियों पर उठाए जाने सवाल और उनके भ्रष्टाचार के मुद्दों के विषय ऐसे हैं ,जिन पर नयी सरकार को पूरी तरह से अमल मे लाना चाहिए । इसके अभाव मे उस सरकार की जवाबदेही तय करने का काम भी चुनाव आयोग उतने ही अधिकार से करे ,जितने अधिकार से निर्द्वंद होकर वह चुनाव सम्पन्न कराता है,मगर ऐसा आज तक हुआ नहीं और कभी होगा ,इस पर राजनीतिक दलों मे कहीं  मतभेद भी नहीं है । आखिर क्यों ? इस सवाल का जवाब भारत के राजनीतिक दल,सरकारें और न्यायपालिका और चुनाव आयोग कभी खोजने की कोशिश भी नहीं करते । अधिकतम मतदान की अपील के लिए करोड़ों अरबों रुपये खर्च करके भी मतदान के प्रतिशत मे मात्र 10-15 प्रतिशत की औसत वृद्धि ही दर्ज की जा सकी है -इसमें मतदान केन्द्रों पर कब्जे और मतदान की पवित्रता भंग किए जाने के गैरकानूनी तरीके भी शामिल हैं ,जो भविष्य की सरकारे कानून बनाने की ताकत प्राप्त करने के लिए अमल मे लाती हैं ।
हाँ यह मिसाल काफी होगी कि नरेंद्र मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने चुनाव के दौरान (जो वह हार गए ) खुद आयकर सीमा पाँच लाख किए जाने की घोषणा ,पूरे चुनाव अभियान के दौरान करते रहे और चुनाव के बाद देश के वित्त मंत्री के तौर शपथ लेने के बाद उनका सबसे पहला काम देश का अगला बजट बनाने का ही था । अपने पहले ही  बजट मे ही उन्होने पिछली मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को बेहद खराब बताने मे कभी संकोच नहीं किया और उनकी पार्टी ने भी मनमोहन सिंह की सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताया और फिर अपने पहले ही बजट मे अरुण जेटली  ने आम आदमी की सबसे बड़ी उम्मीद आयकर सीमा मे बढ़ोत्तरी को छुआ तक नहीं, जिसे मनमोहन सिंह सरकार अपने दस साल के कार्यकाल मे कई बार ,थोड़ा थोड़ा ही सही बढ़ा चुकी थी ।
वाल यह है कि सरकार बनाने जा रहे लोग क्या ऐसे ही बिना समुचित जानकारी के नारों और भाषणों के सहारे सत्ता हथियाने का अभियान चालते हैं या फिर देश को एक उत्तर दायित्व पूर्ण सरकार देना चाहते हैं -इस सवाल का जवाब चुनाव आयोग को लेने के लिए सक्षम बनाना होगा । जब तक हमारे देश के राजनीतिक दलों की जनता के प्रति जवाबदेही कानूनी तौर पर आती नहीं होग जाती ,तब तक भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र का नाम देना महज एक चुनावी वादे और नारे जैसा खोखला है। इसके बाद मतदान और उसकी प्रक्रिया ही सबसे बड़ा मुद्दा है जिसकी बुनियाद पर ही हमारा लोकतन्त्र खड़ा है। इसके लिए हम आज भी उस सोच मे जी रहे हैं जब भारत को  आजाद कराया गया था और जैसे तैसे देश मे आजाद भारत की एक सरकार का गठन करना था। उस समय देश मे सिर्फ एक ही पार्टी थी और वह कांग्रेस । उस कांग्रेस ने अपने हिसाब से चुनाव प्रणाली और मतदान की प्रक्रिया तय कर दी ,वही प्रक्रिया आज विकास के मामले मे दुनिया के मुक़ाबले को तैयार इस देश को हर पाँच साल मे एक नए दल को सरकार बनाने का अवसर देती है जो पिछली सरकार के धुर खिलाफ होता है ,मगर चुनाव प्रणाली को बदलने के बारे कोई नहीं सोचता ।क्योंकि चुनाव प्रचार के लिए मुद्दे गढ़ने वाले राजनीतिक दल चुनाव की लाचार प्रणाली को ही अपने लिए संजीवनी शक्ति मानते हैं ।
त्तर प्रदेश और उत्तराखंड पंजाब के बाद मणिपुर आदि राज्यों की विधान सभाओं के लिए अगले वर्ष के शुरू में ही होने वाले चुनावों के लिए इस समय सभी दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।  मगर अभी चुनाव में समय है।  कितना हास्यास्पद है कि चुनाव की पवित्रता के नाम पर सभी राजनीतिक दाल किस तरह से कानून  इस्तेमाल करते हए निर्द्वंदता के साथ अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर रहे हैं ,बाकायदा खर्च की सीमा के बंधन से मुक्त होकर लगभग पूरा चुनाव प्रचार अब से कई महीने पहले ही शुरू कर चुके हैं ,जिस करोड़ों रूपया खर्च किया जा रहा है।
  1. यही नहीं राजनीतिक दलों में टिकटों की खुली बिक्री किये जाने की बात अब किसी से छिपी नहीं है।  इसके बावजूद रोज उम्मीदवार तय करके ,बदले भी जा  रहे हैं ,जाहिर यह इस खुले लोकतांत्रिक भ्र्ष्टाचार को रोकने में यह देश पूरी तरह असहाय और मूकदर्शक है।  किसी को न तो इसमें कोई खामी नजर आ रही है और न ही कोई कानून इस पर लागू होता है।  ऐसे में मौजूद परिवेश में जरूरी है कि -कहीं भी किसी प्रदेश सत्तारूढ़ दल के द्वारा यदि चुनावी तैयारी और उम्मीदवारों का चयन /घोषणा किया जाना शुरू कर दिया जाये तो वहाँ तुरंत चुनाव आचार संहिता अस्तित्व में आ जानी चाहिए।ऐसे में फिलहाल उत्तर प्रदेश और उत्तरखंड मे तत्काल चुनाव आचार संहिता लागू की जाए । 
  2. सभी दल पूरी तरह से चुनाव की खुले आम तैयारी कर रहे हैं जबकि चुनाव मे अभी समय है । ऐसे मे राजनीतिक दल अपनी तैयारी करें उसमें कोई ऐतराज नहीं है मगर उम्मीदवारों की घोषणा न करें । इससे चुनावी रंजिश पैदा हो रही है जो मतदान के समय हिंसक रूप मे सामने आती है । 
  3. कोई भी राजनीतिक दल यदि अपने किसी उम्मीदवार की घोषणा करता है तो उसका निर्वाचन अधिकार पत्र नामांकन के समय जारी करने के बजाए उम्मीदवारी की घोषणा के साथ ही तत्काल निर्वाचन आयोग को उपलब्ध कराया जाये । 
  4. राजनीतिक दलों पर यह पाबंदी होनी चाहिए कि एक बार अपने उम्मीदवार कि घोषणा के बाद उसे बदलेंगे नहीं ।और यदि बदलते हैं तो उन पर जुर्माना लगना चाहिए ,क्योंकि आज के दौर मे राजनीतिक दल अपने टिकिट बेच रहे हैं ,ऐसे मे राजनीतिक दलों पर यह पाबंदी होनी चाहिए कि वे चुनाव आयोग के समक्ष इस बात का शपथ पत्र दें कि किसी भी उम्मीदवार को अपना प्रत्याशी बनाने के लिए उन्होने किसी प्रकार का धन नहीं लिया है । और न ही वह चुनाव के लिए किसी प्रत्याशी धन देंगे और चन्दा भी नहीं लिया जाएगा । 
  5. यदि कभी भी किसी भी उम्मीदवार का चयन करने के लिए उससे धन या अन्य किसी प्रकार का लाभ लिया गया है तो उस दल का पंजीकरण निरस्त करके उसे चुनाव मे प्रतिबंधित कर दिया जाएगा । 
  6. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड मे बड़ी संख्या मे राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों ने अपने होर्डिंग बैनर प्रचार सामिग्री लगा दी है । जिला निर्वाचन अधिकारियों से जांच कराकर रिपोर्ट ले ली जाये और ऐसी सभी प्रचार सामिगरी को उस क्षेत्र के प्रयाशी के चुनाव खर्च मे जोड़ दिया जाये ,भले ही पार्टी उस क्षेत्र से अपना प्रत्याशी ऐन चुनाव के मौके पर बदल दे । 
  7. चुनाव कार्यक्रम की निर्धारित व्यवस्था मे अब बदलाव किया जाये प्रचार की अवधि ,चुनाव प्रचार चुनाव मे होने वाले खर्च समाप्त कर देना चाहिए ! 
  8. इसलिए कि यह तब जरूरी था,जब संचार और यातायात के साधन नहीं थे , मीडिया सोशल मीडिया ,इन्टरनेट ,टेलीफोन ,मोबाइल स्कूटर मोटसाइकिलें नहीं थे तब यह प्रचार का समय ठीक था ,अब तो सब अपने अपने हिसाब से इस कदर प्रचार मे लगे हैं कि मतदान से पहले अलग से चुनाव प्रचार सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार और लोकतन्त्र के चीरहरण के अलावा कुछ नहीं है । 
  9.  #ElectionCommissionofIndia को इस बारे मे सोचना चाहिए ।देश मे चुनाव के लिए चुनाव प्रचार ,प्रचार के लिए दिया जाना वाला समय और खर्च समाप्त कर देनी चाहिए । खर्च की अनुमति ही न हो । चुनाव की घोषणा के साथ ही एक हफ्ते मे मतदान होना चाहिए ।
  10. वर्तमान समय मे इलेक्ट्रानिक और इन्टरनेट का युग है ,ऐसे मे चुनाव आयोग को न केवल अपनी वेब साइट पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य सोशल साइट्स के जरिये भी आधार नमबर से मतदाता  सूची लिंक होने कारण मतदान की वयवस्था करनी चाहिए । 
  11. इसके अलावा सबसे अंत मे जो सबसे महत्वपूर्ण सुझाव है वह यह कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र मे मतदान के लिए न्यूनतम तीन दिन समय दिया जाये ,सचल मतदान केन्द्रों की भी व्यवस्था की जाये ,जिससे सभी मतदाता अपने मत का अपने घर पर ही प्रयोग कर सकें ।
-आशीष अग्रवाल 

26 जन॰ 2016

नए वकीलों को मानदेय देने की तैयारी मे यू पी बार काउंसिल !


बरेली बार व्सोसियव्श्न की नयी कार्यकरिणी ,अध्यक्ष घनश्याम शर्मा,सचिव अमर भारती की टीम ने 26 जन वारी 2016 को गंतत्र दिवस के मौके पर अपना कार्यभार ग्रहण किया । 
समारोह के मुख्य अतिथि इलाहाब्द हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कालीमुल्लाह का स्वागत करते जिला जज बरेली ,श्री ए के सिंह ,साथ मे बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एडवोकेट घनश्याम शर्मा । 
मुख्य अतिथि जस्टिस क्लीमुल्लाह का स्वागत करते बार एसोसिएशन के सचिव एडवोकेट अमरभारती । 
जस्टिस क्लीमुलाह का स्वागत करते हुये वारिस्थ पत्रकार व एडवोकेट आशीष अग्रवाल । 






जस्टिस क्लीमुल्लाह का स्वागत करते हुये एडवोकेट ममता गोयल ,साथ मे बार एसोसिएशन के अध्यक्ष घनश्याम शर्मा । 



समारोह मे पहुंचे पूर्व सांसद वीरपाल सिंह (सपा),व प्रवीण सिंह एरन (कांग्रेस ),बीच मे पत्रकार व एडवोकेट आशीष अग्रवाल । 
जस्टिस कलीमुल्लाह से भोजन के दौरान वार्ता करते हुये पत्रकार व एडवोकेट आशीष अग्रवाल । 

जस्टिस कालीमुलाह के साथ वार्ता करते हुये वरिष्ठ एडवोकेट और बरेली के पूर्व DGC (Criminal ) राजेश सिंह यादव । 


शपथ ग्रहण समारोह मे उपस्थित बरेली का अधिवक्ता समुदाय । 











ह एक खास बात है कि बरेली बार एसोसिएशन की नयी कार्यकारिणी उसी दिन शपथ लेती है जिस दिन देश को पूर्ण गणराज्य का दर्जा मिला । इस ऐतिहासिक दिन के संयोग पर मुख्य अतिथि जस्टिस कलीमुल्लाह ने भी सराहा । 
रेली बार एसोसिएशन की नवनिर्वाचित कार्यकारिणी ,नए अध्यक्ष घनश्याम शर्मा और सचिव अमर भारती की टीम ने 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस के मौके पर अधिवक्ताओं और संगठन के हित मे काम करने की शपथ ले ली । बरेली के पूर्व जिला जज और इलाहाबाद हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस कालीमुल्लाह ने बरेली बार एसोसिएशन के सभी पदाधिकारियों को एक साथ शपथ दिलाई ।
स मौके पर आए बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा सदस्य एडवोकेट बलवंत सिंह ने कई खास ऐलान किए -जिसमें नए वकीलों को शुरुआती दौर मे कुछ वर्षों तक प्रशिक्षु भत्ता देने की बात खास है । इसके अलावा उन्होने नए वकीलों के लिए आल इंडिया बार काउंसिल द्वारा लगाई जा रही एक और परीसखा पास करने की बाध्यता के खिलाफ बरेली बार एसोसिएशन के सचिव अमर भारती की मुहिम से सहमति प्रकट करते हुये बताया कि बार काउंसिल आफ यू पी भी इस बारे मे सहमत नहीं है और यही प्रयास है तीन साल की विधि परीसखा पास करने के बाद किसी भी युवा को दोबारा परीक्षा न देनी पड़े ,आखिर ऐसी परीक्षाओं के बाद विश्वविद्यालयों की परीक्षा का क्या महत्व रह जाएगा ?
मारोह मे सचिव अमर भारती संक्षिप्त और सारगर्भित संचालन के दौरान ही प्रखर राजनेता की भूमिका मे नजर आए ,वहीं अपनी चिर परिचित शैली मे अध्यक्ष घनश्याम शर्मा ने चंद शब्दों मे ही अपनी बात करके भविष्य के इरादे का संकेत दे दिया कि बोलने से ज्यादा करके दिखया जाए ,यह सही है बरेली के विशाल अधिवक्ता समाज को उनसे बेहद उम्मीदें हैं । तमाम वक्ताओं के भाषों मे जहां शेरो शायरी की बहुतायत रही वहीं ,पूर्व डीजीसी क्रिमिनल Rajesh Singh Yadav एक मात्र ऐसे अधिवक्ता रहे जिनका भाषण पूरी तरह बार और बेंच के बीच की व्यावहारिक दिक्कतों और कानून पर केन्द्रित रहा । समारोह मे बार के निवर्तमान अध्यक्ष विनोद कुमार श्रीवास्तव की अनुपस्थिति कुछ खली जबकि बार काउंसिल आफ यू पी के सदस्य और अधिवक्ता Shirish Mehrotra झण्डा रोहण के बाद नहीं दिखाई दिये ! वरिष्ठ अधिवक्ता एवं कवि,साहित्यकार स्व राम प्रकाश गोयल की पुत्री ममता गोयल एडवोकेट भी समारोह मे पहुंची !

-आशीष अग्रवाल