सात दिसंबर 1992 ,अमरउजाला बरेली की खबर ! |
'बीती नौ नवंबर को अब सुप्रीमकोर्ट का फैसला आ जाने के बाद भी मेरे विचार से अभी तक राममन्दिर न ही बोला और न ही लिखा गया है ।कहीं न कहीं संकोच हैअभी तक मैंने भी जब भी इस विषय मे लिखा तो विवादित ढांचा ही लिखा ,आज पहली बार उस जगह को राम मन्दिर लिखते हुये ठीक वैसा ही अचरज हो रहा है जैसा 6 दिसंबर 1992 की उस ऐतिहासिक तारीख को हुआ था जब बह तीन गुंबद गिराए गए थे। बीती नौ नवंबर 2019 को सुप्रीमकोर्ट का फैसला आ जाने के बाद भी मेरे विचार से अभी तक उस स्थान को किसी भी मीडिया ने और नेता ने भाषण मे राममन्दिर नहीं बोला और न ही लिखा है । कहीं न कहीं संकोच है, और यह रहेगा । मंदिर बन जाने तक । हालांकि मामला फिर अदालत मे पहुँच गया है । छह दिसंबर 1992 को शायद ही किसी को यह एहसास हो कि थोड़ी बहुत देर मे यहाँ कुछ ऐसा हो जाएगा जो उन्होने भी सोच रखा है जिनहोने यह विश्वव्यापी हलचल पैदा कर देने वाला काम कर दिया और उसे उसका नामोनिशान मिटा देने तक पूरा किया । अचरज हुआ था । लगभग सभी हतप्रभ थे । आखों को यकीन नहीं हो रहा था कि जो दिख रहा है वही हुआ है । ,मगर अब फैसला आने तक विवादित ढांचा लिखने की कोई कानूनी बाध्यता अब नहीं है । वैसे अभी याचिकाएं दायर ही हुयी हैं ।
सच मे एक अविश्वसनीय ,अकल्पनीय और अद्भुत मंजर था । लाखो की भीड़ कहाँ छिपी थी,किसी को नहीं पता। सवेरा होने से पहले ही माथे पर भगवा पट्टी बांधे , बिना खाये पिये,एक तरह से धार्मिक अनुष्ठान मे भाग लेने जा रहे पूर्ण समर्पण और असीम श्रद्धा जैसे उत्साह के साथ एक ही दिशा मे चले जा रहे दिखने मे हजारों लगते ,मगर हकीकत मे लाखों हो गए कार सेवकों की यह भीड़ सवेरे सात बजते बजते ,जिसजगह को हिन्दू राम मंदिर और कुछ मुसलमान मस्जिद और बाकी बुद्धिजीवी विवादित स्थान कहकर संबोधित कर रहे थे ,अगाध सुरक्षा बालों की मौजूदगी से बेफिक्र और कभी भी गोली चल जाने के पुराने अंदेशे से भी बेखौफ भीड़ ने उस स्थान को घेर लिया था । सवेरे सात बजे मैं भी उसी स्थान पर था । उस समय कवरेज के लिए दैनिक अमर उजाला की टीम की अयोध्या मे मौजूदगी 15 नवंबर से ही होना शुरू गयी थी । और सबसे पहले पहुँचने वाला पत्रकार मैं ही था ।
शुरुआती दिनों मे समूचा इलाका मठ मंदिर आश्रम धर्मशालाएँ घूमने के बाद ऐसा लगता ही नहीं था कि अखबारों मे जो ऐलान छापे दिख रहे हैं ,वाकई उनमे कोई सच्चाई हो भी सकती है । अक्सर उस समय फैजाबाद के एसएसपी डी के राय जो बाद मे सांसद भी बने ,से बात होती थी तो पूछने मे आता था कि क्या तैयारी है और क्या अंदेशा है आपको ! उनका सीधा सपाट जवाब होता था हमे तो कुछ लगता ही नहीं । आखिर यह फौज काहे आ रही है ,कौन भेज रहा है ,कहाँ रहेगी ,कौन इंतजाम करेगा ,कुछ पता नहीं है । जब केंद्रीय सुरक्षा बल यहाँ पहुँच जाते है तब उनके अफसर हमारे पास आते हैं और रहने की जगह मांगते हैं ,जहां स्थान होता है उन्हें दिखा दिया जाता है । इसके पहले और बाद मे हमसे कोई कुछ नहीं पूछता और न बताता है। उस समय लखनऊ यानि उत्तर प्रदेश मे भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और केंद्र मे कांग्रेस की सरकार के प्रधान मंत्री पीवी नरसिंहा राव थे । जो अब राम मंदिर है यानि तब का विवादित ढांचा ,उसके सामने मानस भवन था । उसमे अक्सर विश्व हिन्दू परिषद ,बजरंग दल कि प्रेस कान्फ्रेंस होती थी और वही एक मात्र जरिया था जिससे यह पता लगे कि 6 दिसंबर को क्या क्या होना है । मगर किसी ने भी अपने मुह से यह नहीं कहा था कि जो ढांचा अभी है उसे गिराया जाएगा । बस इतना जरूर कहते थे कि मंदिर तो बनाएँगे , कैसे , देखिएगा , कैसे बनेगा। यानि ढांचा तोड़ देंगे ,जवाब होता था कि नव निर्माण के लिए थोड़ा बहुत ध्वंस तो होता है । बाकी अभी कोई तय नहीं है । दूसरी तरफ मामला अदालत मे भी चल रहा था । रोज नए हलफनामे दिये जाते थे और सुप्रीमकोर्ट रोज नए आदेश देता था । वह आदेश अयोध्या मे जमा हो रही भीड़ को कभी रिचार्ज करते थे और कभी फ्यूज कर देते थे । मसला कारसेवा होगी। सरयू से बालू मिट्टी लाएँगे । ढांचे की जगह को पहले धुलाई सफाई करके साफ और पवित्र करेंगे तब न बनेगा राम जी का मंदिर ।
एक दृश्य बड़ा अचंभित करता था । तब का ढांचा और अब राममन्दिर परिसर मे अयोध्या आने वाले कारसेवक और देश भर के श्र्द्धालु सुबह सबसे पहले रामलला के दर्शन को लाइन मे लग जाते थे । यह क्रम निरंतर चलता था । उसके बाद ही कोई जलपान-भोजन करता था । इतना ही नहीं मंदिर परिसर मे 24 घंटे ड्यूटी देने वाले सुरक्षा बलों के जवान आते और जाते समय रामलला को सबसे पहले प्रणाम करते थे । माथे पर चन्दन-टीका लगाकर अपनी ड्यूटी शुरू करते थे । मंदिर परिसर किसी भी मौसम मे नंगे पैर ही ड्यूटी दी जाती थी । और जब छह दिसंबर को यह तीन गुंबद वाली इमारत गिर के ज़मींदोज़ हो गयी और उसी के मलवे पर रामलला की मूर्तियों सहित समूचा राम दरबार स्थापित हो गया तो सात दिसंबर को मंदिर मे पूजा अर्चना करने के लिए पुजारी महंत सत्येंद्र नारायण जी को घर से बुलाया गया ,हालांकि इसके पहले वहाँ तैनात केन्द्रीय सुरक्ष बालों के जवान धूप-दीप-पुष्प आदि अर्पित कर चुके थे । रामलला की बिना घंटे-मंजीरे और मंत्र-शंख के पूजा हो चुकी थी । बाद मे जब पुजारी जी मय भोग की थाली के आए तो विधिवत पुजा भी हुयी । इसके बाद रामलला की पूजा अर्चना मे कोई अडचन नहीं आएगी ,ऐसा आदेश भी सुप्रीम कोर्ट न दे दिया था ।
छह दिसंबर 1992 की सुबह ही जल्दी से जल्दी मौके पर पहुँचने की आपा धापी मे सुबह सुबह ही निकल लिए। फैजाबाद से अयोध्या तक के रास्ते मे गजब का सन्नाटा था । कुत्ते कबूतर चिड़िया भी मारे सर्दी के दिखाई नहीं दे रहे थे । चाय नाश्ते की तो सोचना भी गुनाह था । जिस शान ए अवध होटल मे हम लोग ठहरे थे वहाँ भी कोई स्टाफ नहीं था । एक कप चाय तो बहुत बड़ी बात थी । जिस टैक्सी से रोज अयोध्या और आसपास का इलाका घूमते थे, वही टैक्सी वाला उसदिन बमुश्किल तीन गुना यानि तीन हजार रुपए भाड़ा मांग पाया और तय हुआ । पहुंचे अयोध्या । मानस भवन के नीचे तब पीलीभीत के एडीएम उमेश तिवारी भूख से बिलबिलाते मिले । मैंने पूछा क्या है-बोले जल्दी आओ आलू की टिक्की हैं,बस खत्म हो रही है । उन्होने जल्दी से मेरे लिए भी टिक्की के नाम पर सिर्फ उबले हुये आलू नमक लगाकर लिए ,हम खा ही रहे कि भगदड़ मचने लगी । करीब नौ बजे का समय था । दूर से ढांचे के एक गुंबद पर कुछ लोग चढ़े दिखाई दिए ,बीच का सारा स्थान अथाह कारसेवकों से भरा हुआ था । अचानक हो गया -हो गया -111हो गया की आवाज़ के साथ लोग हमारी तरफ को दौड़ने लगे । मैं उमेश तिवारी का हाथ पकड़े वही बगल मे मानस भवन की छत पर जाने के लिए जीने मे घुस गए ,यह सोच कर कि वहाँ से सब दिखता रहेगा और कवरेज भी हो जाएगी । मगर जीने का दरवाजा छत पर से लोगों ने पहले ही बंद के लिया था ,वजह छत भर चुकी थी । वहाँ महिलाओं को सुरक्षित मानकर बंद किया गया था । पुलिस ने ही ।
अब जो हमारी दौड़ शुरू हुयी वह भारी दहशत से भरी हुयी थी । भागते रहे ,कहीं भी एक क्षण को सुरक्षा बल ठहरने नहीं दे रहे थे । करीब 11 बज गए थे । कुछ और लोग भागते हुये आए बोले तोड़ दिया । कोई यकीनन नहीं कर रहा था । हम फिर भगाए गए । भागते रहे । मुख्य सड़क से फोर्स के जवान हांक देते और आबादी मे भी डर पूरा ही था । किसी ने खेतों की तरफ से फैजाबाद का रास्ता बताया । फिर भागे । फैजाबाद सात किलोमीटर था । भागते भागते करीब तीन बजे रास्ते बदलते बदलते आखिर फैजाबाद दिखा । मगर हमे तो अयोध्या जाना था । सोचा चलते हैं जो होगा देखा जाएगा । कोई साथ नहीं । अकेला ही था । कहीं कहीं भगवा ,टीका चन्दन चोटी धारी मिले । और दाढ़ी वाले भी। शुक्र था लोगों ने नाम और परिचय पत्र देखकर जाने दिया । इस तरह पूछते पाछते शाम सात बजे अंधेर मे अयोध्या की रोशनी दिखी । पता लगा सब सफा चट हो चुका है यकीन नहीं हुआ । पूछताछ की कि वाकई खबर सही थी । बहुत मन हुआ एक बार मौके पर देखा जाये मगर सब रास्ते बंद कर दिये गए थे । भूख के मारे बुरा हाल था । मंदिरों और अखाड़ों से साथी ओंकार सिंह भोजन की व्यवस्था कर रहे थे । वहाँ सब बेखौफ व्यवस्था चल रही थी । अयोध्या के भीतर जैसे कोई काम सम्पन्न हो जाने की तसल्ली सी थी । देर रात में एक बार फिर उधर गए ,जबरदस्त रौशनी में नहाये रामलला का स्थान एक मलवे के ढेर सा था। अब वहाँ एक भावी ऐतिहासिक मंदिर बनेगा म्जो दुनिया के लिए आकर्षण के साथ आस्था का केंडा भी होगा ही ।
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१- http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post_11.html?m=1
२-http://sidestoryhindi.blogspot.com/2013/12/blog-post_9.html?m=1
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-आशीष अग्रवाल
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