मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री #नरेंद्रमोदी की तरह सुप्रसिद्ध फिल्मकार और शायर गुलज़ार साहब की भी आदत में अपना सम्बोधन "मित्रों" से करने की आदत है, मगर आज मुम्बई में अमर उजाला के शब्द सम्मान समारोह में उन्होंने भले ही ही माहौल को हल्का करने के लिए मित्रों का सम्बोधन बोलने से परहेज किया हो ,मगर यह संकोच ही एक सन्देश तो दे ही गया।
साहित्य और राजनीति में कैसे महज अंदाज़-ए -बयां से शब्दों का राजनीतिकरण करके खांचों में बाँट के रख दिया जाता है ,इसका एक ताज़ा उदाहरण आज मुम्बई में उस समय मिला जब प्रसिद्ध फ़िल्मकार और शायर गुलज़ार साहब जब सम्मान देने के बाद अपने सम्बोधन को डायस पर आए और कुछ क्षणों के लिए शांत खड़े रहे । माजरा समझ मे नहीं आया या वह कुछ सोच रहे थे ,अगले ही पल उन्होने खुद ही स्पष्ट कर दिया । एक गहरी सांस के साथ उनके कंठ से से निकाला "दोस्तों " !मौक़ा था देश के प्रमुख समाचार पत्र समूह " अमरउजाला " के दूसरे शब्द सम्मान समारोह का ,जिसमें अपनी क्षण भर की चुप्पी और बाद में दोस्तों के उद्बोधन से अपनी बात शुरू करने को लेकर जब उन्होने स्पष्टीकरण दिया ,बस वही से एक नयी बहस या कहें मंथन की शुरुआत हुयी ।
दरअसल गुलज़ार साहब डायस पर आते ही कहीं न कहीं नरेंद्र मोदी के अंदाज़े-ए -बयां से कुछ कुछ प्रभावित जरूर रहे होंगे ,तभी उन्हें एक दम हमेशा अपनी जुबां पर रहने वाला "मित्रों " शब्द कुछ गैर सा कैसे लगने लगा ,मैं इसी बात को लेकर थोड़ा आश्चर्य में पड़ गया। मित्रों और दोस्तों में भी आमतौर पर फर्क करने की सोच जल्दी किसी बड़े से बड़े आदमी के दिमाग में कैसे आ सकती है ,यह भी कम गंभीर मुद्दा नहीं है। फिर गुलज़ार साहब क्या सोच के ठिठके ,यह तो वही जाने ,और उन्होंने इस पर रौशनी भी नहीं डाली ,मगर जो सफाई या तंज लहजे में उन्होंने बयान किया वह कुछ ऐसा ही इशारा दे गया कि अक्सर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपनी बात मित्रों से ही शुरू करते हैं ,और कहीं उन्होंने भी यदि आज देश के इस बड़े समाचार पत्र समूह के समारोह में मित्रों को जुबां पर रख लिया तो कहीं उन्हें मोदी की शब्दावली अपनाने वालों में शुमार न कर लिया जाए ,या फिर उन्होंने यहां भी हिंदी और उर्दू दो अलग अलग शख्सियतों में खड़ा करके देखा ,कुछ कहा नहीं जा सकता।
खैर बात जो भी रही हो राजनीति और साहित्य ,दो ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां से देश को दिशा या सोच मिलती है। राजनेताओं के भाषणों में अपनाई गयीं बातें और शब्द या तो प्रिय बन जाते हैं या परहेज की वजह। यह कोई पहला मौक़ा नहीं है। नगरों,कस्बों चौराहों के नाम से लेकर कभी गुस्से या आलोचना में इस्तेमाल किये गए शब्द या अपनी अपनी परम्परा के प्रदर्शन के लिए किये जाने भाषण नारे गायन इत्यादि भी परहेज और अपनाये जाने की जरुरी वजह बन जाते हैं। गुलज़ार साहब ने मित्रों को छोड़कर दोस्तों को बुलाने के अंदाज़ से कोई हल्का फुल्का सन्देश नहीं दिया है। यह अचानक भी नहीं है। एक समय था जब हिन्दुतान कहते कहते लोगों की जुबां पहले इण्डिया और फिर भारत आया। भारत आने के बाद जब भारत माता की जय का नारा बुलंद हुआ तो इस नारे को सिर्फ एक धारा की तरफ मोड़ दिया गया।
बहुतों ने इससे परहेज अभी तक जारी रखा है और कुछ लोग इसे जरूर लगाते हैं। ठीक इसी तरह वन्दे मातरम का उद्घोष आज एक साइड में खड़ा है। बंगाल समेत कई राज्यों में तो इसे बोलना भी खतरे से खली नहीं हैं और सरकारी और सार्वजनिक समारोह में तो इससे दूरी बनाये रखने का एजेंडा बाकयदा निर्धारित होता है। एक लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश में सिनेमाघरों से राष्ट्रगान सरकारी आदेश से दूर ही रहा ,यह अलग बात है कि यह आदेश लिखित हो या मौखिक !राष्ट्रगान की जगह काफी समय तक सारे "जहां से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा" ले चुका है ,खासकर इमजेंसी के दौर में ! मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि बरेली में शहामत गंज नाम का रेलवे का मालगोदाम और स्टेशन है और उससे कोई एक किलोमीटर की थोड़ी बहुत काम दूरी पर श्याम गंज बाज़ार है और थोड़ा आगे चलकर आगे चलकर कालीबाड़ी का इलाका ,क्योंकि वहां कालीबाड़ी और मान काली का मंदिर कुछ ख़ास दुरी पर नहीं है। मगर आज तक श्यामगंज लिखते समय कलम और कम्प्यूटर का की बोर्ड गुलज़ार साहब की तरह ठिठक जाता है की इसे श्यामगंज लिखें या शहामत गंज ?ऐसा सिर्फ बरेली में हो ,नहीं यह तो भारत की राजनीतिक परम्परा का ध्वजवाहक अंदाज़ हो गया है की वोट न खिसक जाएँ ! गोया मुस्लिम वोट इन्हीं बातों से रोजी रोटी मकान बाकी बातों से बाकी सबके वोट मिलते हैं !
एक हमारी भारत माता हैं,जिनका जिक्र ऊपर आ चुका है। भारत को भारत कहने से भी कम परहेज नहीं है ,माता तो बहुत दूर की बात है। हिन्दुस्तान कहने में एक अलग तहज़ीब निकल कर आती है। होगा कुछ ऐसा, मगर जो दिखता है वह वोट ,इसमें दो राय नहीं हो सकती। कुल मिलाकर देखा जाए हिंदी और उर्दू को इंसानों की तरह जातियों में बांटकर जिस तरह से देश को राजनीति से सराबोर कर दिया गया है ,वह दिन दूर नहीं जब लोग इन सब लहजों से ही परहेज करके एक नयी तहज़ीब की बुनियाद कायम
करेंगे,जिसके बाद नयी पीढ़ी अपने सपनों का मुल्क बनाएगी
साहित्य और राजनीति में कैसे महज अंदाज़-ए -बयां से शब्दों का राजनीतिकरण करके खांचों में बाँट के रख दिया जाता है ,इसका एक ताज़ा उदाहरण आज मुम्बई में उस समय मिला जब प्रसिद्ध फ़िल्मकार और शायर गुलज़ार साहब जब सम्मान देने के बाद अपने सम्बोधन को डायस पर आए और कुछ क्षणों के लिए शांत खड़े रहे । माजरा समझ मे नहीं आया या वह कुछ सोच रहे थे ,अगले ही पल उन्होने खुद ही स्पष्ट कर दिया । एक गहरी सांस के साथ उनके कंठ से से निकाला "दोस्तों " !मौक़ा था देश के प्रमुख समाचार पत्र समूह " अमरउजाला " के दूसरे शब्द सम्मान समारोह का ,जिसमें अपनी क्षण भर की चुप्पी और बाद में दोस्तों के उद्बोधन से अपनी बात शुरू करने को लेकर जब उन्होने स्पष्टीकरण दिया ,बस वही से एक नयी बहस या कहें मंथन की शुरुआत हुयी ।
दरअसल गुलज़ार साहब डायस पर आते ही कहीं न कहीं नरेंद्र मोदी के अंदाज़े-ए -बयां से कुछ कुछ प्रभावित जरूर रहे होंगे ,तभी उन्हें एक दम हमेशा अपनी जुबां पर रहने वाला "मित्रों " शब्द कुछ गैर सा कैसे लगने लगा ,मैं इसी बात को लेकर थोड़ा आश्चर्य में पड़ गया। मित्रों और दोस्तों में भी आमतौर पर फर्क करने की सोच जल्दी किसी बड़े से बड़े आदमी के दिमाग में कैसे आ सकती है ,यह भी कम गंभीर मुद्दा नहीं है। फिर गुलज़ार साहब क्या सोच के ठिठके ,यह तो वही जाने ,और उन्होंने इस पर रौशनी भी नहीं डाली ,मगर जो सफाई या तंज लहजे में उन्होंने बयान किया वह कुछ ऐसा ही इशारा दे गया कि अक्सर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपनी बात मित्रों से ही शुरू करते हैं ,और कहीं उन्होंने भी यदि आज देश के इस बड़े समाचार पत्र समूह के समारोह में मित्रों को जुबां पर रख लिया तो कहीं उन्हें मोदी की शब्दावली अपनाने वालों में शुमार न कर लिया जाए ,या फिर उन्होंने यहां भी हिंदी और उर्दू दो अलग अलग शख्सियतों में खड़ा करके देखा ,कुछ कहा नहीं जा सकता।
खैर बात जो भी रही हो राजनीति और साहित्य ,दो ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां से देश को दिशा या सोच मिलती है। राजनेताओं के भाषणों में अपनाई गयीं बातें और शब्द या तो प्रिय बन जाते हैं या परहेज की वजह। यह कोई पहला मौक़ा नहीं है। नगरों,कस्बों चौराहों के नाम से लेकर कभी गुस्से या आलोचना में इस्तेमाल किये गए शब्द या अपनी अपनी परम्परा के प्रदर्शन के लिए किये जाने भाषण नारे गायन इत्यादि भी परहेज और अपनाये जाने की जरुरी वजह बन जाते हैं। गुलज़ार साहब ने मित्रों को छोड़कर दोस्तों को बुलाने के अंदाज़ से कोई हल्का फुल्का सन्देश नहीं दिया है। यह अचानक भी नहीं है। एक समय था जब हिन्दुतान कहते कहते लोगों की जुबां पहले इण्डिया और फिर भारत आया। भारत आने के बाद जब भारत माता की जय का नारा बुलंद हुआ तो इस नारे को सिर्फ एक धारा की तरफ मोड़ दिया गया।
बहुतों ने इससे परहेज अभी तक जारी रखा है और कुछ लोग इसे जरूर लगाते हैं। ठीक इसी तरह वन्दे मातरम का उद्घोष आज एक साइड में खड़ा है। बंगाल समेत कई राज्यों में तो इसे बोलना भी खतरे से खली नहीं हैं और सरकारी और सार्वजनिक समारोह में तो इससे दूरी बनाये रखने का एजेंडा बाकयदा निर्धारित होता है। एक लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश में सिनेमाघरों से राष्ट्रगान सरकारी आदेश से दूर ही रहा ,यह अलग बात है कि यह आदेश लिखित हो या मौखिक !राष्ट्रगान की जगह काफी समय तक सारे "जहां से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा" ले चुका है ,खासकर इमजेंसी के दौर में ! मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि बरेली में शहामत गंज नाम का रेलवे का मालगोदाम और स्टेशन है और उससे कोई एक किलोमीटर की थोड़ी बहुत काम दूरी पर श्याम गंज बाज़ार है और थोड़ा आगे चलकर आगे चलकर कालीबाड़ी का इलाका ,क्योंकि वहां कालीबाड़ी और मान काली का मंदिर कुछ ख़ास दुरी पर नहीं है। मगर आज तक श्यामगंज लिखते समय कलम और कम्प्यूटर का की बोर्ड गुलज़ार साहब की तरह ठिठक जाता है की इसे श्यामगंज लिखें या शहामत गंज ?ऐसा सिर्फ बरेली में हो ,नहीं यह तो भारत की राजनीतिक परम्परा का ध्वजवाहक अंदाज़ हो गया है की वोट न खिसक जाएँ ! गोया मुस्लिम वोट इन्हीं बातों से रोजी रोटी मकान बाकी बातों से बाकी सबके वोट मिलते हैं !
एक हमारी भारत माता हैं,जिनका जिक्र ऊपर आ चुका है। भारत को भारत कहने से भी कम परहेज नहीं है ,माता तो बहुत दूर की बात है। हिन्दुस्तान कहने में एक अलग तहज़ीब निकल कर आती है। होगा कुछ ऐसा, मगर जो दिखता है वह वोट ,इसमें दो राय नहीं हो सकती। कुल मिलाकर देखा जाए हिंदी और उर्दू को इंसानों की तरह जातियों में बांटकर जिस तरह से देश को राजनीति से सराबोर कर दिया गया है ,वह दिन दूर नहीं जब लोग इन सब लहजों से ही परहेज करके एक नयी तहज़ीब की बुनियाद कायम
करेंगे,जिसके बाद नयी पीढ़ी अपने सपनों का मुल्क बनाएगी
-आशीष अग्रवाल
पूरी खबर देखें - अमर उजाला शब्द सम्मान समारोह
2 टिप्पणियां:
Sunder
Nice
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